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________________ - श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ जनवरी-मार्च २००७ जैन एवं बौद्ध धर्मों में चतुर्विध संघों का परस्पर योगदान डॉ० शारदा सिंह जैन एवं बौद्ध धर्मों के विकास में उनके संघों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संघ ही श्रमणधारा के मूलभूत आधार स्तम्भ हैं जिन पर पूरा जैन व बौद्ध धर्म स्थित है। वैसे तो संघों के अस्तित्व की सूचना प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से ही मिलनी प्रारम्भ हो जाती है, किन्तु ऐसा लगता है कि विधिवत रूप से संघ की अवधारणा का विकास बहुत अन्तराल के पश्चात् हुआ। बुद्ध और महावीर के अनुयायी प्रारम्भ से ही संघ में ही दीक्षित होते थे, किन्तु उन संघों के नियमों व विधानों का विवरण ग्रन्थों में नहीं मिलता है। स्पष्ट है कि संघ की स्थापना के बहुत बाद संघ के विस्तृत नियम बनें होंगे। बौद्ध धर्म में पहले केवल भिक्षु संघ ही था। भिक्षुणी संघ को बाद में महाप्रजापति गौतमी के विशेष अनुरोध पर स्थापित किया गया। बौद्ध संघ की अपेक्षा जैन संघ में श्रमण और श्रमणी संघ की स्थापना साथ-साथ हुई और उनके नियम भी समान थे। इस बात की प्रामाणिकता हमें 'आचारांग' और 'दशवैकालिक' जैसे प्रामाणिक ग्रन्थों में वर्णित 'भिक्खु वा भिक्खुनी' और 'निग्गन्थ वा निग्गन्थी' से पता चलता है। 'संघ' के सम्बन्ध में हमें 'ज्ञाताधर्मकथा', 'सर्वार्थसिद्धि', 'राजवार्तिक' आदि जैन ग्रन्थों से तथा 'चुल्लवग्ग', 'भिक्षुणी विनय' आदि बौद्ध ग्रन्थों से पता चलता है। इन ग्रन्थों में 'संघ' शब्द का उल्लेख अनेक स्थलों पर किया गया है, किन्तु संघ शब्द की स्पष्ट व्याख्या का वहाँ भी अभाव रहा है। जैन धर्म की भाँति बौद्ध धर्म में भी भिक्षुओं को व्यवस्थित रखने के लिए एक समूह रूप संघ की स्थापना की गयी थी। यह चतुर्दिक संघ एक स्वचालित संस्था थी, जिसका विधान उस समय के गणराज्यों के समान था। बुद्ध ने बिना किसी जाति का भेद-भाव किये सधर्म में सबका समान रूप से अधिकार माना और चातुर्वर्ण्य शुद्धि का प्रचार किया तथा ब्राह्मण को किसी उच्च वंश में जन्म लेने के * पी०डी०एफ० (ICPR), पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई०टी०आई० मार्ग, करौंदी, वाराणसी-२२१००५
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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