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________________ ४४ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १/जनवरी-मार्च २००७ इतना ही नहीं, बल्कि दोनों परम्पराओं के सन्तों की उक्तियाँ भी ऐसी मिलती हैं जो मात्र उन्हीं की परम्परा तक सीमित नहीं है, बल्कि अन्य सभी परम्पराओं को भी प्रभावित करने वाली हैं। उदाहरणस्वरूप वैदिक परम्परा के महान संत स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि हमें ऐसा ईश्वर नहीं चाहिए जो स्वर्ग में तो सभी सुख दे पर पृथ्वी पर एक रोटी भी नहीं दे। इसमें रोटी की बताई गई महत्ता वैदिक परम्परा के लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि श्रमण परम्परा तथा अन्य परम्पराओं के लोगों के लिए भी है। इसी तरह जैन परम्परा के महान संत आचार्य तुलसी ने कहा है- वह समाज समाज कहलाने का अधिकारी नहीं है जिस समाज का एक भी व्यक्ति भूख से पीड़ित हो, जिस समाज का एक भी व्यक्ति पैसे के अभाव में अपने बच्चों को शिक्षित करने में असमर्थ हो। इस कथन से भी यह ज्ञात होता है कि यह मात्र जैन समाज तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वैदिक समाज एवं अन्य समाजों के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। सन्दर्भ : १. ब्राह्मणोऽस्य मुखमासिद् बाहु राजन्य: कृतः। ऊरु तदस्य यद्वैश्य पद्मायां शूद्रो पद्मयां शूद्रो अजायतः।। ऋग्वेद, द्वितीय भाग १०/१०/१२, भाष्यकार- स्वामी दयानन्द सरस्वती, प्रका०- दयानन्द संस्थान, नई दिल्ली। २. मुखतो ब्राह्मणा जाता उरस: क्षत्रियास्तथा। ऊरुभ्यां जज्ञिरे वैश्या: पदम्यां शूद्रा इति श्रुति।। वाल्मीकि रामायण, भाग-३, ३/१३/३०, सम्पा० - पी० सी० दीवान, प्रका० - ओरिएंटल इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा, प्रथम संस्करण, १९६३। ३. व्यास, डॉ. शान्ति कुमार नानूराम, रामायणकालीन समाज, पृ०-७६, प्रका० - सत्साहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण- १९५८१ ४. भगवद्गीता, ४/१३ ५. अर्पणा, भगवद्गीता : आधुनिक युग आधार, भाग-१, पृ०- ३०७, प्रका० - अर्पणा आश्रम, मधुवन, करनाल, हरियाणा, द्वितीय संस्करण, १९९४। ६. मनुस्मृति, १२/२७/३० ७. ब्राह्मणानां तुसितो क्षत्रियाणां तु लोहितः। वैश्यानां पतिको वर्ण शूद्रणामसितस्तथा।। महाभारत (शान्तिपर्व), १८८/५
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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