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________________ तीस वर्ष और तीन वर्ष : २५ करते? वे तो मिथ्यात्वी थे और उनका अविनय भी कर सकते थे। इस साहित्य को लोकभाषा में प्रस्तुत करना भी क्षम्य नहीं था। यही कारण है कि जैनधर्म और उसके सिद्धांतों के विषय में पर्याप्त भ्रांतियां बनी और आज भी बनी हुई हैं। इसके विपर्यास में, ईसाई संगठनों ने बाइबिल और उसके अनेक अंशों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया और उसे निःशुल्क वितरित किया। अब तक बाइबिल का ३३० भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और ६०० भाषाओं में अनुवाद की योजना चल रही है। यदि भाषाओं के साथ जनभाषाओं को लिया जाय, तो प्रायः २८०० प्रकार के इसके अनुवाद हो चुके हैं। आजकल प्रचार का एक रूप यह भी है कि होटलों के कमरों में बाइबिल रखी जाने लगी है। साहित्य का यह विपुल उत्पादन एवं संप्रसारण भी ईसाई धर्म के संवर्धन में सहायक हुआ है। १०. ईसाइयों के समान जैनों में भी अनेक पंथ हैं जो मौलिक जैन सिद्धांतों की व्याख्या किंचित परिवर्धित रूप में करते हैं। ये पंथ मत की जीवंतता को निरूपित करते हैं। ये स्वतंत्र रूप से ही अपना कार्य करते हैं। सामान्य प्रचार के लिये इन पंथों का कोई सम्मिलित संगठन नहीं है, जो जैन धर्म की वर्तमान और भविष्य की सम्भावनाओं पर ध्यान दे सके। वर्तमान में अनेक अन्तर्राष्ट्रीय विशेषणी जैन संस्थायें बनी हैं जिन्होंने इस दिशा में कुछ काम करना प्रारंभ किया है। ईसाई धर्म के स्थिर होने पर प्रारम्भ में यरूशलम और बाद में रोम इसका प्रमुख केन्द्र बना जिसने न केवल ईसाइयों को संगठित रखा, अपितु उनके प्रचारप्रसार को भी वरीयता दी। अब तो ईसाइयों के अनेक संगठन इसके विश्वव्यापी प्रसार में लगे हुये हैं। ईसाई पंथ की जीवंतता १५वीं-१७वीं सदी में लूथर और उसके उत्तरवर्ती काल में व्यक्त हुई। इस विषय में पूर्व में बताया जा चुका है। ११. ईसाई धर्म के प्रचार का एक मुख्य कारण अन्य धर्मों की निंदा, अवर्णवाद और प्रलोभन भी रहा है। अपने अनेकात सिद्धांत के कारण जैन यह विधि नहीं अपना सकते थे। १२. ईसाइयों का पवित्र ग्रंथ कहीं से भी किसी भी पंथ ने प्रकाशित किया हो, उसमें सार्थक एकरूपता पाई जाती है। जैनों के आगम ग्रंथों के विभिन्न प्रकाशनों में यह एकरूपता नहीं पाई जाती। यह महत्त्वपूर्ण एवं ध्यान देने योग्य विषय है। शोधकर्ताओं को इसमें किंचित् असुविधा होती है। १३. महावीर का धर्म व्यक्ति को स्वावलम्बी तथा स्वयं का भाग्यविधाता बनने की प्रेरणा देता है। इसके विपर्यास में, ईसा का धर्म परावलम्बन तथा ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त करने को ही वरीयता देता है।
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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