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________________ तीस वर्ष और तीन वर्ष : २३ २. दोनों धर्मों को मध्यकाल के पूर्व अनेक क्षेत्रों में राज्याश्रय मिला। बाद में केवल ईसाई या अन्य धर्म ही प्रत्यक्ष या परोक्ष राज्याश्रय पाते रहे। ३. महावीर का धर्म मुख्यत: आत्म-केन्द्रित धर्म माना जाता है। अत: इसके अनुयायियों ने इसके प्रचार की आवश्यकता ही न समझी और न यह व्यापक प्रचारप्रसार ही पा सका। साथ ही, यह सामाजिक सेवा एवं सुधार के क्षेत्र में भी अग्रणी नहीं बन सका। इसके विपर्यास में, ईसाई धर्म मुख्यतः पर-सेवा केन्द्रित रहा। फलत: ईसा के शिष्यों एवं प्रचारकों ने उसका खूब प्रचार किया। ईसा के जीवनकाल में ही उनके १२ मुख्य शिष्य, ७० धर्म प्रचारक थे। इससे धर्मान्तरण, धर्म-दीक्षण भी हुआ जो अब तक चालू है। आज भी विश्व के अनेक क्षेत्रों में लगभग २०००० से अधिक प्रचारक यह काम कर रहे हैं और प्राय: ४००० व्यक्ति प्रतिदिन ईसाई बन रहे हैं। यह स्पष्ट है कि महावीर, ईसा की तुलना में धर्म की विक्रय कला में अधिक निपुणता नहीं पा सके। उनका धर्म अमूर्त एवं अदृश्य सुख के आशावाद का संदेश देता था, जबकि ईसा धर्म प्रत्यक्ष सेवा के माध्यम से प्रत्यक्ष सुखी होने का मार्ग सुझाता था। ४. महावीर का धर्म प्रबुद्ध जन तथा गरीब-अमीर सभी के लिये है, लेकिन प्रबुद्ध वर्ग में भी इसके अनुयायी (२-५ प्रतिशत) हैं। इसके विपर्यास में, ईसाई धर्म, विशेषत: दीनों के लिये है, उनमें इसके प्रति मनोवैज्ञानिक आकर्षण होता है। समग्र समाज में इनका प्रतिशत ९० तक जाता है। अत: इसके अनुयायियों की संख्या सर्वाधिक है। ५. भगवान महावीर ने अनुयायियों को साधओं के लिये औषध, शास्त्र, अभय और आहार के रूप में चार प्रकार के दान का उपदेश तो दिया, पर उसे अलौकिक कोटि में डाल दिया। गृहस्थों के लिये भी चार दत्तियों का 'महापुराण' मैं उल्लेख है, जिन्हें लौकिक दान कहा जाता है। 'स्थानांग' में भी १० प्रकार के दान और नौ प्रकार के पुण्यों का उल्लेख है। पर इनमें धर्म-प्रचार के लिये न तो कोई नियम बनाया गया है और न ही एतदर्थ प्रेरणा दी गई है। इस आत्म-केन्द्रण के कारण जैन संस्कृति का संप्रसारण या संवर्धन नहीं हो सका। इसके विपर्यास में, ईसाई धर्म में अनुयायियों की आय का न्यूनतम १०% धर्म प्रचार कार्य में दान देने का नियम प्रारम्भ से चल रहा है। मुस्लिम धर्म में भी यह प्रथा है। इसी दान से वे विश्व के अनेक क्षेत्रों में उपरोक्त चारों प्रकार की सेवायें उपलब्ध कराकर अपना धर्म प्रसारित करते रहे और कर रहे हैं।
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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