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________________ तीस वर्ष और तीन वर्षः : १९ यही नहीं, उत्तरवर्ती काल में ईसाइयों में भी ईश्वर के स्वरूप एवं कार्य, संगठन-व्यवस्था, मठवाद, प्रक्षिप्त अंशों की मान्यता, क्रियावाद, धर्मगुरुओं का विवाह आदि के प्रति शंकायें व्यक्त की गईं जिनकी व्याख्याओं में भिन्नता के कारण सोलहवीं सदी और उसके बाद ईसाई पंथ अनेक प्रतिवादी (प्रोटेस्टेंट) सम्प्रदायों में, समय-समय पर, विभाजित होता गया। वर्तमान में इनकी संख्या दर्जनों में चली गई है। इसी काल में ईश्वर के तीन रूपों पिता, पुत्र और रूह की धारणा आई। प्रोटेस्टेंट और क्रिश्चियन साइंस तो ईश्वर को व्यक्ति के बदले एक धारणा और बाइबिल को मात्र धार्मिक विकास का एक अभिलेख मानते हैं। 'डिवाइन लाइफ मिशन' तो ईसा को ४२ उद्धारकों में एक मानता है। यही नहीं, नये युग में तो अनेक ईसाई धारणाओं का महत्त्व कम होता जा रहा है एवं अनीश्वरवादियों की संख्या में क्रमश: विस्तार होता जा रहा है। नीत्से ने तो बहुत पहले 'ईश्वर मर चुका है' की घोषणा कर दी थी। २. जैन आगम ग्रंथ जहाँ स्वतंत्र ग्रंथ है, वहीं बाइबिल एक संग्रह ग्रंथ है जिसमें ६६ प्रकरण संग्रहीत हुए हैं। विषयों की पुनरावृत्ति तो सभी में है। फिर भी, एक पुस्तक की प्रभाविता अनेक पुस्तकों की प्रभाविता से अधिक सिद्ध हुई है। ___ यद्यपि जैन मूर्तिपूजा के विषय में मौन हैं, फिर भी प्राय: पंद्रहवी सदी तक अधिकांश जैन मूर्तिपूजक थे। वे मूर्तिपूजा के माध्यम से पत्थर की या व्यक्ति की पूजा नहीं करते, अपितु मूर्ति में संस्थापित एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति के गुणों को स्वयं में पल्लवित करने के लिये कामना करते हैं। वे उनके आध्यात्मिक गुणों के अनुकरण का प्रयास करते हैं। जप, प्रार्थना, ध्यान, भजन-संहिता आदि अंत:शक्ति को संवर्धित करते हैं। इनमें ईश्वर का विशेष महत्त्व नहीं होता। वे आदर्श-पूजक हैं, मूर्तिपूजक नहीं। मूर्तियाँ तो आदर्शों के माध्यम हैं। अत: जैन न नास्तिक हैं, और न ही एकेश्वरवादी हैं। वे जिनवादी हैं और अंतरंग शत्रुओं को जीतने वालों का सम्मानपूर्वक स्मरण करते हैं। वे भावपूजा के साथ द्रव्य-पूजा भी करते हैं। पूजा उनके लिये एक मनोवैज्ञानिक उपक्रम है। स्तर के अनुरूप सगुण-निर्गुण पूजायें होती हैं। निर्गुण पूजा में मूर्ति नहीं होती। इसके विपर्यास, में बाइबिल मूर्ति को मल (Unclean) मानती है और मूर्तिपूजकों की निंदा करती है। बाइबिल मूर्तिपूजा की धारणा को नहीं मानती है। फिर मनुष्य कैसे ईश्वर की मूर्ति बनाये? सामान्य मूर्ति से तो प्रदूषण होता है। पर सामान्य एवं आर्थोडोक्स (कैथोलिक) गिरिजाघरों में भी क्रास या मेरी की मूर्तियों की भजन-संहिता के माध्यम से सर्विस (द्रव्य पूजा) की जाती है। यह प्रत्यक्ष नहीं, तो परोक्ष पूजा तो है ही। यह भी कहा गया है कि मंदिर जैसे पवित्र स्थान पर जूता पहन कर नहीं जाना चाहिए। (कुछ प्रोटेस्टेंट इसे नहीं मानते।)
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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