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________________ तीस वर्ष और तीन वर्ष : १७ १. महात्मा ईसा का धर्म मुख्य रूप से एक ईश्वरवाद की धारणा पर आधारित है। यह ईश्वर को जगत्कर्ता, जगन्नियंता एवं अनंत सुखमय जीवन देने वाला मानता है। यह स्वर्ग के राज्य का मनोवैज्ञानिकतः आकर्षक चित्र प्रस्तुत करता है। इसके अनुसार, ईसा ईश्वर-पुत्र ही है जिसने दूसरों के पापों के लिये अपना बलिदान देकर अनंत सुख पाया है। वह हमारी सेवा करना चाहता है, अपनी सेवा (पूजा) नहीं कराना चाहता। वह वीतरागी, उदासीन व सर्वोत्तम नहीं है। वह तो मानव सेवी है। ईश्वरवाद की धारणा के चार आधार हैं : अ. ईश्वर संरक्षक एवं सुरक्षक है। ब. ईश्वर का स्वरूप आदर्शवाद की दृष्टि देता है। स. ईश्वर हमें नैतिक व्यवहार की प्रेरणा देता है। द. ईश्वर हमें आध्यात्मिक शक्ति का अनुभव कराता है। फलतः ईश्वर से प्रेम और उसमें विश्वास हमारे जीवन को पाप-मुक्त बनाने में सहायक होता है। ईसाई धर्मग्रन्थों ने ईश्वर के अस्तित्व के विषय में बुद्धिवाद का सहारा नहीं लिया है। इसे वे स्वतःसिद्ध अवधारणा के रूप में लेते हैं। वे ईश्वर को अदृश्य पर महादयालु और महासत्ता के रूप में मानते हैं। वे उसमें भक्ति और समर्पण को ही जीवन की सार्थकता मानते हैं। वे मानव-जीवन को ईश्वराधीन मानते हैं। इसके विपर्यास में, जैन अनीश्वरवादी हैं। वे प्राणियों के जीवन को परतंत्र नहीं मानते, उसके विकास को स्वावलम्बन का आधार देते हैं। उन्होंने ईश्वर की धारणा को स्वतःसिद्ध अवधारणा नहीं माना है और बुद्धिवाद के आधार पर इस धारणा का अनेक ग्रंथों में खण्डन किया है। उनके अनुसार, 'सृष्टि एक महान कार्य है, अत: घट आदि कार्यों के समान उसका कर्ता होना चाहिए' के तर्क में 'कार्य' शब्द का अर्थ ही विवादग्रस्त हो जाता है। कार्य का अवयवी असत् से सद्प होना, कृतबुद्धित्व या विकारवत्व के रूप में परिभाषित करने पर ईश्वर अनित्य और विकारी सिद्ध होता है। साथ ही, गम्भीर विचार करने पर, अनवस्था और चक्रक आदि अनेक दोष आते हैं। इसके अतिरिक्त, अशरीरी ईश्वर में ज्ञान, इच्छा व प्रयत्न कहाँ से होंगे? वह क्रिया कैसे कर सकेगा? ईश्वर की अदृश्यता उसकी विशिष्ट जाति से भी नहीं सिद्ध की जा सकती। और भी, ईश्वर न तो अपनी निष्क्रिय उपस्थिति मात्र से, न ही ज्ञान या ज्ञानेच्छा-प्रयत्न से और न अपने ऐश्वर्य से ही सृष्टि-रचना कर सकता है। __ इसी प्रकार, यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है कि ईश्वर सृष्टि क्यों करता है? स्वेच्छा से, प्राणियों के पुण्य-पाप से, दया से या मनोविनोद के लिये? इन प्रश्नों पर विचार
SR No.525060
Book TitleSramana 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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