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: श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ / जनवरी-मार्च २००७
तीस वर्ष की वय में उन्होंने यहूदीकरण कर्ता जोन से दीक्षा ली और ४० दिन तक पर्वत की उपत्यकाओं में ध्यान और साधना की। इससे उन्हें अनेक ऋद्धियां प्राप्त हुईं और उनके जीवन का लक्ष्य दीनों की सेवा तथा ईश्वर के राज्य की स्थापना हो गया। सन् २९ में ध्यान-साधना के समय असुरों ने उन्हें साधना से विचलित होने के कम-से- -कम तीन बार प्रलोभन दिये, पर वे अपनी साधना से विचलित न हुए। उनकी प्रकृति प्रसाद, विश्वास, शांति और करुणापूर्ण थी ईश्वर में विश्वास के माध्यम से उन्होंने जीवन में आशावादी वृत्ति उत्पन्न की और लगभग चौदह कोटि के दीनों के लिये स्वर्ग का राज्य आने वाला है, का उपदेश देकर उन्होंने समाज के ९० प्रतिशत जनसमुदाय में प्रतिष्ठा और अनुगामिता पाई। वे दीनों से बड़ा स्नेह करते थे और उनके साथ भोजन और आवासन भी करते थे। वे दीन ही सर्वाधिक संख्या में उनके अनुयायी बने ।
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१. इन्होंने अपने दीक्षोत्तरी जीवन में गैलिली, जूदा, यरुशलम और उससे जुड़े क्षेत्रों में प्रवचन, प्रचार, सेवाकार्य और अनेक चमत्कारी कार्य किये।
२. अनेक भविष्यवाणियाँ की।
३. स्वर्ग के राज्य का रूपक चित्र प्रस्तुत किया।
४. अपनी मृत्यु का पूर्वाभास किया।
५. अपने क्रांतिकारी उपदेश तत्कालीन जनभाषा ( हैब्रू) में दिये।
६. उन्होंने उपदेश प्रसार हेतु अपने १२ प्रमुख शिष्यों एवं ७० धर्म प्रचारकों को प्रेरित किया।
७. विश्रांति दिवस पर भी रोगियों की सेवा की।
८. उनके जीवन में चार कोटि की ३५ चमत्कारिक घटनायें पाई जाती हैं
(अ) उन्होंने अट्ठारह विभिन्न कोटि के रुग्ण व्यक्तियों को स्पर्श, वचन, दृष्टि तथा संकल्प से उपचारित किया ।
(ब) उन्होंने पाँच प्रकरणों में भूतावेश-निवारक काम किया।
(स) उन्होंने नौ प्राकृतिक शक्तियों पर विजय पाने के चमत्कार दिखायें।
(द) उन्होंने तीन व्यक्तियों को मृतोत्थित किया एवं स्वयं भी मृतोत्थित
हुये।