SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ जुलाई-दिसम्बर २००६ जैन दर्शन में ईश्वर विचार डॉ. सुधा जैन भारतीय संस्कृति की दो धाराएं वैदिक तथा श्रमण प्राचीन काल से अबाधगति से प्रवाहित हो रही हैं। श्रमणधारा की भी दो शाखाएं हैं- जैन तथा बौद्ध। इन सबने भारतीय जीवन को जो धार्मिकता, दार्शनिकता तथा सामाजिकता दी है इससे वे विश्व के लिए आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं। वैदिकधारा को ब्राह्मण परम्परा भी कहते हैं, क्योंकि इसमें ब्राह्मण ग्रन्थ तथा ब्राह्मण वर्ग की प्रधानता है। इसी तरह श्रमणधारा को क्षत्रिय परम्परा कहते हैं, क्योंकि इसमें क्षत्रियों की प्रधानता है। जैन परम्परा के भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान . महावीर तक २४ (चौबीस) तीर्थंकरों का प्रादुर्भाव क्षत्रिय कुल में ही हुआ था। भगवान बुद्ध भी क्षत्रिय कुलोत्पन्न थे। किन्तु वैदिक तथा श्रमण परम्पराओं में अन्तर यह है कि वैदिक परम्परा में ब्राह्मणों की प्रधानता जन्मगत है, जबकि श्रमण परम्परा में क्षत्रियों की प्रधानता कर्मगत है। वैदिक परम्परा ईश्वरवादी है। इसमें ईश्वर को सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहारकर्ता माना जाता है। विश्व में जो कुछ भी होता है, ईश्वर की इच्छा से होता है। यदि कोई तिनका भी हिलता है तो यह कहा जाता है कि उसमें भी ईश्वर की इच्छा है। वैदिक परम्परा के प्रसिद्ध सन्त गोस्वामी तुलसीदास जी की रचना रामचरितमानस की प्रसिद्ध उक्ति है: “सबहि . नचावत राम गोसाईं। नाचत नर मरकट की नाईं।।" अर्थात् स्वामी रामचन्द्र सबको नचाते हैं और मनुष्य उस तरह से नाचते हैं, जिस तरह कोई मदारी बन्दर को नचाता है। श्रमण मतावलम्बी अनीश्वरवादी हैं, वे यह नहीं स्वीकार करते कि मनुष्य जिसके पास हृदय की विशालता, * प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई. टी. आई. रोड, करौंदी, वाराणसी-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy