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________________ १२० : श्रमण, वर्ष ५७, अंक ३-४ / जुलाई-दिसम्बर २००६ होने से करोड़पति बन गया है। यह सुनकर 'क' के मन में विचार आता है। कि मुझसे कम योग्यतावाला यह व्यक्ति सेठ बन गया है, कार में ठाट से घूमता है। मैं कैसा अभागा हूँ कि इससे अधिक योग्यतावाला होता हुआ भी दरिद्र हूँ; आने-जाने के लिये मेरे पास कार की तो बात दूर रही, स्कूटर भी नहीं है। उसके मन में विचार आता है कि मुझमें मेरे मित्र 'ख' से अधिक योग्यता है। मैं भी धन कमाऊँगा, कार लाऊँगा। फिर तो उसमें कार-प्राप्ति की कामना उत्पन्न होते ही उसका मन आशान्त हो गया। चित्त विक्षुब्ध हो गया। अब उसे कार का अभाव खटकने लगा। जो 'क' कार की कामना उत्पन्न होने से पहले शान्त तथा सूखी बैठा था, अब वह कार की कामना की उत्पत्ति से दुःखी हो गया। फिर उसने अथक परिश्रम किया। अनेक कष्ट सहन किये और धन कमाया। उसने कार-प्राप्ति के लिये नम्बर लगाया। कम्पनी ने सूचना दी कि आप चार-पाँच दिनों में पैसे जमा कराकर कार ले जाय। इस सूचना से उसका हृदय प्रफुल्लित हुआ, उसे सुख हुआ। विचारणीय बात तो यह है कि 'क' ने अभी तक प्राप्त होने वाली कार देखी तक नहीं है और न किसी कार पर उसका स्वामित्व हुआ है, अभी तो कार कम्पनी के गैरेज में जहाँ-तहाँ पड़ी है, फिर भी उसे सुख हो गया। यदि कार-प्राप्ति में सुख होता तो कार की प्राप्ति होने पर ही सुख होना चाहिये था, पहले नहीं। चार दिन बाद पैसे जमा करके वह कार ले आया तो ड्राइवर से कहा कि शहर में धीरे-धीरे कार चलाना। कार में बैठकर कपड़े के मित्र की दुकान के सामने पहुंचते ही कार रुकवायी और कपड़े खरीदने के बहाने अंदर गया। मित्र ने कार देखकर प्रशंसा की तो 'क' फूला नहीं समाया । इसी प्रकार अपने अन्य मित्रों के यहाँ भी किसी-न-किसी बहाने पहुँचा और उनके मुख से प्रशंसा सुनकर फूला न समाया। उसके हर्ष गर्व का पारावार न रहा। परन्तु दूसरे दिन फिर कार में बैठकर बाजार में गया तो कल-जितना सुख आज न रहा। यहाँ तक कि दस-पंद्रह दिनों में तो वह सुख घटकर उसकी सामान्य स्थिति में आ गया। केवल उतना ही सुख रह गया, जितना कभी साइकिल के आने पर हुआ था। विचारना यह है कि कार वही है और कार का स्वामी भी वही है, फिर सुख सामान्य कैसे हो गया? क्यों अब उसके हृदय में गुदगुदी नहीं होती? इससे यह परिणाम निकलता है कि सुख कार की प्राप्ति में भी नहीं है। यदि कार की प्राप्ति में होता तो वह अब भी होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525059
Book TitleSramana 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2006
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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