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भारतीय विद्या में शब्दविषयक अवधारणा का विकास : १११
• उच्चार्यमाण वाक्य अतात्त्विक है और तात्त्विक वाक्य का विवर्त्त है। इस तात्त्विक
शब्दत्त्व को भर्तृहरि स्फोट कहते हैं। वस्तुतः शब्द-दर्शन के क्षेत्र में स्फोटवाद भर्तृहरि की अनोखी देन है। इस स्फोट ब्रह्म के साक्षात्कार के द्वारा दुःखों की आत्यन्तिक विमुक्ति होती है तथा मोक्ष प्राप्त होता है। भर्तृहरि का यह स्फोट दर्शन वेदों तथा महाभाष्य पर अवलम्बित है। वस्तुत: भर्तृहरि ने पद-रचना से सम्बन्ध रखने वाले व्याकरण वेदों को दर्शन की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया तथा परमसत्तावादी शब्द दर्शन के क्षेत्र में भर्तृहरि प्रथम और अन्तिम मौलिक विचारक हैं। यही कारण है कि भर्तृहरि के आलोचक भी उनका ससम्मान स्मरण करते हैं।
भारतीय दर्शन के मध्ययुग में शब्द-दर्शन पर हमें वैयाकरणों के अतिरिक्त तीन स्वतन्त्र मान्यताएँ दृष्टिगत होती हैं। नैयायिक, मीमांसक तथा बौद्ध- ये सब पद पदार्थ के स्वरूप का विश्लेषण करने का प्रयत्न कर रहे थे। इन सबने परमसत्तावादियों का इस बात पर विरोध किया कि पद वाक्य का अवयव नहीं है और पदों से वाक्य की रचना नहीं होती। इनके मत में पद वास्तविक और वाक्य के घटक हैं। इस काल में बौद्धों और जैनों के अतिरिक्त सभी दार्शनिक, भाषा को साधुत्व से सम्बद्ध मानते रहे। भाषा का प्रयोग पवित्र माना जाता था
और यह विश्वास किया जाता रहा कि शुद्ध भाषा का प्रयोग इहलोक और परलोक में पुण्यफल देने वाला है। जैन और बौद्ध लोकभाषा के साधु प्रयोग को प्रामाणिक नहीं मानते थे। भाषा के प्रयोग एवं भाषा के स्वरूप से सम्बद्ध इनके समस्त तर्क उनकी व्यक्तिगत आध्यात्मिक दृष्टि से प्रेरित हैं।
बारहवीं सदी के प्रारम्भ में गङ्गेश ने तर्कशास्त्र पर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'तत्त्वचिन्तामणि' लिखी। शब्द का प्रामाण्य न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त सबको अभिमत है। नास्तिकों को शब्द और वेद का प्रामाण्य स्वीकार नहीं हैं। गङ्गेश भर्तृहरि के वाक्य रचना सम्बन्धी प्रश्नों का इस रीति से समाधान करते हैं, जो नैयायिकों की बाह्यार्थवादी मान्यता के अनुकूल है। शब्द-दर्शन के क्षेत्र में न्याय के जगदीश तर्कालंकार और गदाधर तथा मीमांसा के गंगाभट्ट और पार्थसारथि मिश्र परवर्तीकाल में उल्लेखनीय आचार्य हुए।
परवर्ती शताब्दियों में भर्तृहरि और पतञ्जलि के दर्शन को भट्टोजी दीक्षित . एवं नागेशभट्ट ने व्याख्यायित किया। नागेश के 'व्याकरण सिद्धान्तमंजूषा' में
भाषाशास्त्र के सभी प्रश्नों पर विचार किया गया है। प्रायः सभी दर्शनों में ह्रास
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