________________
'श्रमण' पाठकों की नज़र में
'श्रमण' की शोधप्रधान त्रैमासिकों में उच्चस्तरीयता निर्विवाद
सम्पादक जी, आपकी सारस्वत साधना का आक्षरिक स्वरूप त्रैमासिक 'श्रमण' का जनवरी-मार्च, २००६ का अंक प्राप्त कर धन्यता का बोध हुआ। तपोदीप्त महनीया साध्वीश्री के पावन चित्र से अंकित इस अंक का मुखपृष्ठ केवल वरेण्य ही नहीं, कलावरेण्य भी है। इस अंक में संकलित सहज वैदुष्य- विमण्डित शोधगर्भ आलेखों से जहाँ आलेखकों की प्रज्ञाप्रौढ़िता संकेतित होती है, वहीं श्रमण-साहित्य के शोध को स्तरीयता भी प्राप्त हुई है। कहना न होगा कि 'श्रमण' की शोध प्रधान त्रैमासिकों में उच्चस्तरीयता निर्विवाद है। यह शोध- त्रैमासिकों में प्रथम स्थानीय है।
इस अंक में सम्मिलित कतिपय आलेख निस्सन्देह पहली बार 'श्रमण' पाठकों की वैचारिणी को उन्मेषित करने वाले हैं, जैसे 'धर्मचक्र प्रवर्तन-सूत्र : मानवीय दुःख-विमुक्ति का निदान-पत्र' (प्रो. अँगने लाल); 'महावीर कालीन मत-मतान्तर : पुनर्निरीक्षण' (डॉ. विभा उपाध्याय); 'जैनधर्म में जीवन मूल्यों की प्रासंगिकता' (दुलीचन्द जैन); वैदिक ऋषियों का जैन परम्परा में आत्मसातीकरण' (आत्मसातीकरण अपाणिनीय प्रयोग है। पाणिनीय प्रयोग है- ‘आत्मसात्करण’); ‘दया - मृत्यु' एवं 'संथारा - प्रथा' का वैज्ञानिक आधार (डॉ. रामकुमार गुप्त ); 'जैन श्रमण- संघ में विधिशास्त्र का विकास (डॉ. शारदा सिंह) आदि।
निश्चय ही, आपके सम्पादकत्व में 'श्रमण' का शोध-स्तर पूर्वापेक्षा अधिक श्लाघनीय और व्यापक हुआ है। साथ ही, मुद्रण की शुद्धता और कलावरेण्यता में केवल आशंसिनीय ही नहीं, प्रशंसनीय परिवृद्धि भी हुई है। भूयशः साधुवाद-सहित
- श्रीरंजनसूरिदेव, पटना
Jain Education International
अहिंसा की आस्था
समादरणीय सम्पादक जी,
'श्रमण' जनवरी-मार्च २००६ के मुखपृष्ठ पर चित्रित साध्वीश्री के चित्र को देखा तो सोचने लगा, कहीं यह भक्ति साहित्य की कवियित्री मीरा का वैराग्य स्वरूप तो नहीं है। वस्तुतः जैन साध्वी का चित्रित वैराग्य स्वरूप इतना मोहक है कि भक्ति-राग की रसधार में मन निमग्न हो जाता है। अंक के मुखपृष्ठ के साथ इस भव्य चित्र का संयोजन सम्पादक के सम्पादनकुशलता के साथ-साथ उसकी कला संवेदना को भी बखूबी उकेरता है।
वैसे तो 'श्रमण' के इस अंक के सभी आलेख गवेषाणात्मक और अभिनव ऊर्जा प्रदान करनेवाले हैं किन्तु श्री दुलीचन्दजी जैन का “जैन धर्म के जीवन मूल्यों की प्रासंगिकता " पर प्रकाशित लेख जीवन-मूल्य सम्बन्धी एक सम्पूर्ण और सविस्तर दस्तावेज है। यह पूर्णतः सच है कि अहिंसा की आस्था और अनेकान्त की उदार वैचारिकता यदि जीवन में समाहित हो जाय तो सम्पूर्ण मानवीय मूल्य स्वतः विकसित हो जायेंगे। आज का परिवेश इतना दूषित हो गया है कि जीवन मूल्य जर्जरित हो गये हैं। राजनीतिक मूल्य दिशाहीन और सांस्कृतिक मूल्य अपसंस्कृति की राह पकड चुके हैं। इन सबको समेट कर चलने वाली शिक्षा जो स्वयं
एक मूल्य है संक्रमित होती जा रही है। इसे अब भगवान महावीर द्वारा उपदेशित अहिंसा की आस्था ही बचा सकती है। आशा है 'श्रमण' अपने आलेखों के माध्यम से इस दिशा में अपना महत्त्वपूर्ण सहकार प्रदान करता रहेगा।
डा० डी० एन० प्रसाद, सेन्टर फार अप्लाइड गान्धियन थाट, वाराणसी
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org