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________________ जिनप्रतिमा का प्राचीन स्वरूप : एक समीक्षात्मक चिन्तन : ६५ लेकिन चाहे श्वेताम्बर परम्परा हो या दिगम्बर परम्परा, अतिशयों की यह कल्पना तीर्थंकरों के वैशिष्ट्य को ही सूचित करने के लिए प्रचलित हुई है। फिर चाहे यह बात तीर्थंकर के सम्बन्ध में सत्य हो किन्तु मूर्ति के सम्बन्ध में सत्य नहीं है। वैज्ञानिक सत्य यह है कि यदि मूर्ति नग्न है तो वह नग्न ही दिखाई देगी। किन्तु प्रवचनपरीक्षा में उपाध्याय धर्मसागरजी का यह कथन कि “गिरनार पर्वत के स्वामित्व को लेकर जो विवाद उठा उसके पूर्व पदमासन की जिनप्रतिमाओं में न तो नग्नत्व का प्रदर्शन होता था और न वस्त्र चिन्ह बनाया जाता था, समीचीन लगता हैं।" अतः प्राचीन काल की श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं की प्रतिमाओं में भेद नहीं होता था। उनका यह कथन इस सत्य को तो प्रमाणित करता है कि पूर्व काल में जिन प्रतिमाओं में श्वेताम्बर और दिगम्बर का भेद नहीं होता था किन्तु हमें यह भी समझना होगा कि भेद तो तभी हो सकता था, जब दोनों सम्प्रदाय पूर्वकाल में अस्तित्व में होते। __मथुरा की मूर्तियों तथा एक हल्सी के अभिलेख से यह स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है कि संघभेद के पश्चात् भी कुछ काल तक मंदिर व मूर्तियाँ अलग-अलग नहीं होते थे। अभी तक उपलब्ध जो भी साक्ष्य हैं उनसे यही सिद्ध होता है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर प्रतिमाओं में स्वरूप भेद लगभग छठी शताब्दी से अस्तित्व में आया। अकोटा की धातु मूर्ति के पूर्व वस्त्र युक्त श्वेताम्बर मूर्तियों के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। यद्यपि छठी शताब्दी से श्वेताम्बर दिगम्बर मूर्तियाँ अलग-अलग होने लगी, किन्तु उस समय जो भी प्राचीन तीर्थ क्षेत्र थे उनमें जो प्राचीन मूर्तियाँ थीं, वे यदि पद्मासन की मुद्रा में होती थीं तो उनमें लिंग बनाने की परम्परा नहीं थी और यदि वे खड्गासन की मुद्रा में होती थीं तो स्पष्ट रूप से उनमें लिंग बनाया जाता था। हाँ, यह अवश्य सत्य है कि परवर्ती काल के श्वेताम्बर आचार्य भी उन नग्न मूर्तियों का दर्शन, वन्दन आदि करते थे। प्रो. रतनचन्द्रजी ने बीसवीं शताब्दी के स्थानकवासी आचार्य आत्मारामजी और हस्तीमलजी के ग्रंथों से भी उद्धरण प्रस्तुत किए हैं। लेकिन ये उद्धरण भी प्रमाण रूप में स्वीकार नहीं किए जा सकते, क्योंकि आचार्य आत्मारामजी एवं आचार्य हस्तीमलजी ने जो कुछ लिखा है वह अपनी अमूर्तिपूजक साम्प्रदायिक मान्यता की पुष्टि हेतु ही लिखा है। पुन: बीसवीं शताब्दी के किसी आचार्य के द्वारा जो कुछ लिखा जाये वह पूर्व काल के सन्दर्भ में पूरी तरह प्रमाणित हो, यह आवश्यक नहीं होता। जहाँ तक आचार्य हस्तीमलजी के उद्धरण का प्रश्न है, वे स्थानकवासी अमूर्तिपूजक परम्परा के आचार्य थे । उन्होंने जैन धर्म के मौलिक इतिहास में जो कुछ लिखा है वह अपनी परम्परा को पुष्ट करने की दृष्टि से ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525056
Book TitleSramana 2005 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size11 MB
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