SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ जिन्होंने विश्व के मूल घटक को एक, अद्वय और अपरिवर्तनशील माना उन्होंने सत् शब्द का ही अधिक प्रयोग किया, परन्तु जिन्होंने उन्हें अनेक व परिवर्तनशील माना उन्होंने सत् के स्थान पर द्रव्य का प्रयोग किया। भारतीय चिन्तन वेदान्त में सत् शब्द का प्रयोग हुआ, जबकि उसकी स्वतन्त्र धाराओं यथा - न्याय, वैशेषिक आदि में द्रव्य और पदार्थ शब्द अधिक प्रचलन में रहा, क्योंकि द्रव्य शब्द ही परिवर्तनशीलता का सूचक है। जहाँ तक जैनदर्शन का प्रश्न है आचारांग में दवी (द्रव्य) शब्द का प्रयोग तो उपलब्ध होता है किन्तु अपने पारिभाषिक अर्थ में नहीं अपितु द्रवित के अर्थ में है। (जैनदर्शन का आदिकाल पृ. २१) ___ 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग प्राचीन स्तर के आगमों में सर्वप्रथम उत्तराध्ययन में मिलता है। उत्तराध्ययन के वे अध्ययन जिनमें द्रव्य का विवेचन है, अपेक्षाकृत परवर्ती माने जाते हैं। वहाँ न केवल 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग हुआ है अपितु द्रव्य, गुण और पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। उसमें द्रव्य को गुणों का आश्रयस्थल माना गया है। मेरी दृष्टि में उत्तराध्ययन की द्रव्य की यह परिभाषा न्याय-वैशेषिक दर्शन से प्रभावित लगती है। पूज्यपाद देवनन्दी ने पाँचवी शताब्दी में अपनी तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में गुणों के समुदाय को ही द्रव्य कहा है। इसमें द्रव्य और गुण की अभिन्नता पर अधिक बल दिया गया है। पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि में उद्धृत यह चिन्तन बौद्धों के पंच स्कन्धवाद से प्रभावित है। यद्यपि यह अवधारणा पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि में ही सर्वप्रथम मिलती है, किन्तु उन्होंने "गुणानां समूहो दव्वो” इस वाक्यांश को उद्धृत किया है। अत: यह अवधारणा पाँचवीं शती से पूर्व की है। द्रव्य की परिभाषा के सम्बन्ध में 'द्रव्य गुणों का आश्रयस्थान' है और 'द्रव्य गुणों का समूह है' - ये दोनों ही अवधारणाएँ मेरी दृष्टि में तीसरी शती से पूर्व की हैं। इस सम्बन्ध में जैनों की अनैकान्तिक दृष्टि से की गयी सर्वप्रथम परिभाषा हमें ईसा की चतुर्थ शती के प्रारम्भ में तत्त्वार्थसूत्र में मिलती है। जहाँ द्रव्य को गुण और पर्याययुक्त कहा गया है। इस प्रकार द्रव्य की परिभाषा के सन्दर्भ में अनैकान्तिक दृष्टि का प्रयोग सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र में मिलता है। षद्रव्य यह तो हम स्पष्ट कर चुके हैं कि षद्रव्यों की अवधारणा का विकास पंचास्तिकाय की अवधारणा से ही हुआ है। लगभग प्रथम-द्वितीय शताब्दी में ही पंचास्तिकायों के साथ काल को भी स्वतन्त्र द्रव्य मानकर षद्रव्यों की अवधारणा निर्मित हुई। यद्यपि काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं? इस प्रश्न पर लगभग ईसा की दूसरी शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी तक यह विवाद चलता रहा है, जिसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525056
Book TitleSramana 2005 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy