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________________ उपलब्ध होती हैं, जिनमें खड्गासन या पद्मासन की मुद्रा में योगी ध्यान में बैठे दिखाये गये हैं। यद्यपि इन पुरातात्त्विक साक्ष्यों में अनेक अभिलेख भी हैं, जो अभी तक नहीं पढ़े गये हैं। किन्तु इनसे इतना तो सिद्ध होता है कि उस काल में एक सुसंस्कृत सभ्यता अस्तित्व में थी और उसका बहुत कुछ सम्बन्ध प्राचीन आर्हत् धारा की योग, शैव आदि श्रमण धारा की परम्पराओं से रहा है। शैव परम्परा अवैदिक परम्परा है, इसे अनेक विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। वस्तुत: सांख्य योग, शैव, आजीवक, बौद्ध और जैन ये सभी परम्पराएं मूल में प्राचीन आर्हत् श्रमण धाराओं के ही विविध रूप हैं। इन सब साक्ष्यों को चाहे हम स्पष्ट रूप से निर्ग्रन्थ या जैन उद्घोषित न भी कर सकें तो भी ये सभी साक्ष्य आर्हत् श्रमणधारा के ही सूचक है। औपनिषदिक धारा के साथ-साथ सांख्य-योग आदि परम्पराएं भी मूलतः श्रमण ही हैं और इस दृष्टि से विचार करने पर यह सिद्ध हो जाता है कि श्रमण परम्परा भी उतनी ही प्राचीन है जितनी वैदिक परम्परा। . भारतीय श्रमण परम्परा के विभिन्न घटक भारतीय श्रमण परम्परा या आर्हत् परम्परा एक अतिव्यापक परम्परा है। औपनिषदिक, जैन और बौद्ध साहित्य के प्राचीन अंशों में इसके अस्तित्व के संकेत उपलब्ध होते हैं। इस श्रमण परम्परा का प्राचीनतम संकेत ऋग्वेद (१०/१३६/ २) में वातरशना मुनि के उल्लेख के रूप में भी उपलब्ध है। जिसका सामान्य अर्थ नग्न मुनि या वायु का भक्षण कर जीवित रहने वाले मुनि, ऐसा होता है। ऋग्वेद में जीर्ण और मलयुक्त अर्थात् मैले वस्त्र धारण करने वाले पिशंगवसना मुनियों का भी उल्लेख मिलता है। यह सब उल्लेख इस तथ्य के प्रमाण हैं कि ऋग्वैदिक काल में श्रमण परम्परा का अस्तित्व था। पुन: ऋग्वेद, अथर्ववेद आदि में जो व्रात्यों का उल्लेख उपलब्ध होता है वह भी श्रमणधारा की प्राचीनता का सूचक है। इसका एक प्रमाण यह है कि आरण्यकों में श्रमणों और वातरशना मुनियों को एक ही बताया गया है। इसी प्रकार उपनिषदों (बृहदा० ४/३/२२) में तापसों और श्रमणों को एक बताया गया है। जैन परम्परा में भी श्रमणों के पांच प्रकारों की चर्चा करते हुए उनमें निर्ग्रन्थ, आजीवक, शाक्यपुत्रीय श्रमण, गैरिक और तापस ऐसे पांच विभाग मिलते हैं। यदि हम औपनिषदिक, बौद्ध और जैन धारा के प्राचीन साहित्य का अध्ययन करते हैं तो हमें इस प्राचीन श्रमण धारा की व्यापकता का ज्ञान हो जाता है। इस सम्बन्ध में अति विशद् चर्चा तो यहाँ सम्भव नहीं है किन्तु यदि हम बृहदारण्यकोपनिषद् (६/५/३-४ पृ. ३५६ तथा ४/६/१-३) के ब्रह्मवेत्ता ऋषियों की वंशावली, बौद्ध परम्परा की थेरगाथा, तथा जैन परम्परा के ग्रन्थ ऋषिभाषित के ऋषियों का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करें तो हमें भारतीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525056
Book TitleSramana 2005 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size11 MB
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