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________________ महायान सम्प्रदाय की समन्वयात्मक जीवनदृष्टि : १६५ परिणामस्वरूप भोग और त्याग तथा प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के मध्य एक समन्वय अथवा सम्यक् सन्तुलन बनाने का प्रयत्न हुआ। इस समन्वय की धारा को हम सर्वप्रथम ईशावास्योपनिषद् में देखते हैं जहाँ "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा" में त्याग और भोग का समन्वय किया गया है। वैदिक धारा में विकसित औपनिषदिक चिन्तन इस समन्वय का प्रतिनिधि कहा जा सकता है। यही समन्वय की धारा आगे चलकर गीता में अधिक पुष्पित एवं पल्लवित होती है। गीता की जीवन दृष्टि ईशावास्योपनिषद् की जीवन दृष्टि का ही एक विकसित रूप है। जिस प्रकार वैदिक धारा में उपनिषद् एवं गीता समन्वय की दृष्टि को लेकर आगे आते हैं उसी प्रकार श्रमण परम्परा में बौद्धधर्म समन्वय का सूत्र लेकर आगे आता है। यद्यपि प्रारम्भिक बौद्धधर्म ने प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के मध्य या व्यक्ति और समाज के मध्य एक समन्वय का प्रयत्न तो किया था, किन्तु उसे विकसित किया उसकी महायान परम्परा ने। वैदिक परम्परा में यदि गीता प्रवृत्ति और निवृत्ति के मध्य एक उचित समन्वय का प्रयास करती है, तो श्रमण परम्परा में महायान सम्प्रदाय प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के मध्य एक सांग-संतुलन को प्रस्तुत करता है । इसी दृष्टि से हम कह सकते हैं कि भगवद्गीता और महायान परम्परा एक दूसरे के अधिक निकट हैं। दोनों में कोई अन्तर है तो वह अन्तर उनके उद्गम स्थल या उनकी मूलधारा का है। अपने उद्गम के दो भिन्न केन्द्रों पर होने के कारण ही उनमें भिन्नता रही हुई है। वे अपनी मूलधारा से टूटना नहीं चाहते अन्यथा दोनों की समन्वयात्मक जीवनदृष्टि लगभग समान है। अनेक तथ्यों के सन्दर्भों में हम उनकी इस समन्वयात्मक जीवनदृष्टि को देख सकते हैं। गृहस्थ धर्म बनाम संन्यास प्रारम्भिक वैदिक धर्म में संन्यास का तत्त्व अनुपस्थित था, गृहस्थ जीवन को ही एक मात्र जीवन का कर्मक्षेत्र माना जाता था। प्रारम्भिक वैदिक ऋषि पत्नियों से युक्त थे, जबकि श्रमण परम्परा प्रारम्भ से ही संन्यास को प्राथमिकता देती थी तथा पारिवारिक जीवन को बन्धन मानती थी। वैदिक धर्म में यद्यपि आगे चलकर निवृत्तिमार्गी श्रमणधर्म के प्रभाव के कारण वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों का प्रवेश हुआ, किन्तु फिर भी उसमें गृही जीवन को ही जीवन का उच्चतम आदर्श तथा सभी आश्रमों का आधार समझा गया और “अपुत्रस्य गतिर्नास्ति" कहकर गृही जीवन के दायित्वों को निर्वाह करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525056
Book TitleSramana 2005 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size11 MB
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