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________________ १६० प्रहाण का सिद्धान्त धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण आधार है। बुद्ध का सन्देश सदैव ही आग्रह और मतान्धता के घेरे से ऊपर उठने का रहा है क्योंकि वे यह मानते हैं कि सत्य का दर्शन आग्रह और मतान्धता से ऊपर उठकर ही हो सकता है। बौद्ध दर्शन का विभज्यवाद का सिद्धान्त भी हमें यही सन्देश देता है कि सत्य का समग्ररूप से दर्शन करने के इच्छुक व्यक्ति को सत्य को ऐकान्तिक दृष्टि से नहीं, अपितु अनैकान्तिक दृष्टि से देखना होगा। बौद्ध परम्परा में सत्य को अनेक पहलुओं के साथ देखना ही विद्वता है। थेरगाथा में कहा गया है कि जो सत्य को एक ही पहलू से देखता है वह मूर्ख है, पंडित तो सत्य को अनेक पहलुओं से देखता है। विवाद का जन्म एकांगी दृष्टि से होता है क्योंकि एकांगदर्शी ही आपस में झगड़ते हैं। जब हम सत्य को अनेक पहलुओं से देखते हैं तो निश्चय ही हमारे सामने विभिन्न पहलुओं के आधार पर विभिन्न रूप होते हैं और ऐसी स्थिति में हम किसी एक विचारसरणी में आबद्ध न होकर सत्य का व्यापक रूप में दर्शन करते हैं। इसीलिए सत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं कि मैं विवाद (आग्रह) के दो फल बताता हूँ - एक तो वह अपूर्ण और एकांगी होता है और दूसरे वह विग्रह और अशान्ति का कारण होता है। निर्वाण जो कि हमारे जीवन का परम साध्य है वह तो निर्विवादता की भूमि पर स्थित है। इसलिए बुद्ध कहते हैं कि निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझनेवाला साधक विवाद में न पड़े। भगवान बुद्ध की दृष्टि में पक्षाग्रह या वाद-विवाद निर्वाणमार्ग के पथिक के कार्य नहीं हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि यह तो मल्लविद्या है। राजभोजन से पृष्ट पहलवान की तरह अपने प्रतिवादी को ललकारने वाले वादी को उस जैसे प्रतिवादी के पास भेजना चाहिए, क्योंकि मुक्त पुरुषों के पास विवादरूपी युद्ध का कोई कारण ही शेष नहीं है और जो अपने मत या दृष्टि को सत्य बताते हैं उनसे कहना चाहिए कि विवाद उत्पन्न होने पर तुम्हारे साथ बहस करने को यहां कोई नहीं है। इस प्रकार बौद्धदर्शन इस बात को भी अनुचित मानता है कि हम केवल अपने मत की प्रशंसा और दूसरे के मत की निन्दा करते रहें। बुद्ध स्वंय कहते हैं कि शुद्धि यहीं है दूसरे वर्गों में नहीं है, ऐसा अपनी दृष्टि में अतिदृढ़ाग्रही व्यक्ति तैर्थिक (मिथ्यादृष्टि) है। इस प्रकार दृष्टिराग ही मिथ्यादृष्टि है और दृष्टिराग का प्रहाण ही सम्यग्दृष्टि है। धार्मिक संघर्ष की नियन्त्रक तत्त्व प्रज्ञा समग्र धार्मिक मतान्धता और संघर्ष इसीलिए होते हैं कि व्यक्ति धार्मिक सन्दर्भो में विचार और तर्क की अपेक्षा श्रद्धा के अधिक महत्त्व देते हैं। तर्क और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525056
Book TitleSramana 2005 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size11 MB
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