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________________ ४२ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२ / अक्टूबर-दिसम्बर २००४ तथापि उसमें कुछ व्यक्तियों को संघ में प्रवेश देने के अयोग्य माना गया। इस प्रकार बौद्ध परम्परा में, 'श्रमण-दीक्षा के लिए योग्यता' के सन्दर्भ में लगभग वे ही विचार उपलब्ध हैं, जो जैन- परम्परा में हैं। दोनों ही परम्पराओं में श्रमण-दीक्षा के लिए मातापिता एवं परिवार के अन्य आश्रितजनों की अनुमति आवश्यक मानी गयी है । श्रमण-संघ के जो दो मूल विभाग हैं : साधु वर्ग व साध्वी वर्ग, संख्या की विशालता को दृष्टि में रखते हुए इन वर्गों को अनेक उपविभागों में विभक्त किया जाता है, जिसमें साधु-साध्वियों की सुविधानुसार देख-रेख व व्यवस्था की जा सके। यही उनकी संगठनात्मक व्यवस्था है। जैन एवं बौद्ध दोनों श्रमण संघों में संगठनात्मक व्यवस्था का एक क्रमिक विकास परिलक्षित होता है। प्रारम्भ में संघ में दीक्षित होने वाले प्रत्येक नर या नारी को भिक्षु या भिक्षुणी के नाम से जाना जाता था। परन्तु संघ में इनकी संख्या में वृद्धि होने के कारण तथा प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाये. रखने के लिए दोनों संघों में क्रमशः अनेक पदों का सृजन हुआ जैसे- आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, श्रामणेर, मुनि, प्रवर्तिनी, आर्यिका, शिक्षमाणा, गणि आदि। जैन एवं बौद्ध श्रमण संघ की संगठनात्मक व्यवस्था में आचार्य तथा उपाध्याय के पदों को महत्त्वपूर्ण माना गया है इन पदों पर केवल भिक्षु ही अधिष्ठित हो सकता है कोई भिक्षुणी नहीं । अतः दोनों संघों में सर्वोच्च पद भिक्षुओं के लिए ही सुरक्षित है। संगठनात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न पदो के लिए आवश्यक कर्तव्य तथा अधिकार निश्चित कर दिये गये थे। विभिन्न पदों पर आसीन श्रमण या श्रमणी, संघ के सभी नियमों के विज्ञ एवं प्रशासनिक योग्यता में अत्यन्त निपुण होते थे। दोनों श्रमण संघ पद-विभाजन तथा ज्येष्ठता के अनुसार उनके कर्तव्य एवं अधिकार संघ तक ही सीमित थे। संघ के बाहर अर्थात् श्रावक-श्राविकाओं के लिए वह सामान्य रूप से भिक्षु भिक्षुणी के रूप में जाने जाते थे। यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि दोनों धर्मों में भिक्षु भिक्षुणियों को भिक्षु भिक्षुणी पद प्राप्त करने के पहले विधि-नियमों का सम्यक्रूपेण ज्ञान प्राप्त करना पड़ता था । जैन एवं बौद्ध दोनों श्रमण संघों में भोजन, वस्त्र, पात्र, भ्रमण, विहार ( उपाश्रय) आदि के बारे में विधिशास्त्रीय नियमों का विधान किया गया है। भिक्षु भिक्षुणियों के लिए प्राय: समान नियमों की व्यवस्था है। उपर्युक्त विषयों के, विधि सम्बन्धी जो नियम निर्धारित किये गये थे उनमें कालान्तर में एवं समयानुकूल परिवर्तन-परिवर्धन होते रहे। दोनों श्रमण संघों की मान्यता थी कि श्रमण के लिए न अशन का निर्माण किया जाय, न वसन का और न भवन का निर्माण किया जाय। श्रमण उद्दिष्ट त्यागी थे। अनुद्दिष्ट और उपयोगी वस्तु को ही श्रमणों लिए ग्रहणीय माना गया। दशवैकालिक', सूत्रकृतांग आदि में अनेक स्थलों पर औदेशिक आहार आदि ग्रहण करने का निषेध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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