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________________ छाया : छाया : एगम्मि वण निगुंजे अदिस्समाणस्स कस्सवि वरस्स । नित्थणण - संसद्दो ॥२३३॥ गरु- दुक्ख परो मंदो सूयण तत् मनसि कुतूहलं समुत्पन्नं । निश्रुतः || २३२|| - निस्तनन - संशब्दः ||२३३ || मन्दः श्रुत्वा मम यावच्च द्विः वा त्रिः वा व्रजामि पदाति तावत् एकस्मिन् वन-निकुंजे अदृश्यमानस्य कस्यापि नरस्य । गुरु दुक्ख सूचन पर अर्थ :- ते सांभळीने मारा मनमां कुतूहल उत्पन्न थयु अने ज्यां सुधी बे अथवा त्रण पगला गयो तेलीवारमां एक वन निकुंजमां अदृश्यमान कोईक पुरुषनां अत्यंत दुःखने सूचित करतो अतिमन्द अवाजवाळो शब्द मारा वड़े संभळायो. हिन्दी अनुवाद यह सुनकर मेरे मन में कुतूहल उत्पन्न हुआ और जहां तक दो या तीन पग गया उतनी ही देर में एक वन- निकुंज में अदृश्यमान अत्यंत दुःख को सूचित करता अति मन्द आवाज करता किसी पुरुष का शब्द मेरे कान में सुनाई दिया। गाहा : छाया : - तत्तो महंत कोऊहलेण पेच्छामि संबलि तरुं - · - ततो महत् कुतूहलेन तन्मुखोऽहं पश्यामि शाल्मलि - तरु चलितः । उत्तुंगमतिगुरुकम् || २३४|| सरलं अर्थ :- त्यार पछी मोटा कुतूहलवड़े ते तरफ हुं गयो, अने सरळ, उंचुः, अतिविशाळ शाल्मली वृक्ष ने में जोयु. हिन्दी अनुवाद :- फिर बड़े कुतूहल से मैं उस ओर गया और ऊंचा तथा अति विशाल शालमली वृक्ष को मैंने देखा । गाहा : Jain Education International - दंसणमेत्तुप्पाइ अइगरुय भएहिं रत्त- नेत्तेहिं । कसिण- सरीर - समुब्भूय भूरि पहा भरिय गयणेहिं ॥ २३५ ॥ कंतीए पयड - वयणेहिं । फणा घोर - भुयगेहिं ॥ २३६॥ निम्मल - मणि- वलय- समुच्छलंत गुरु-रोस-वस- वियंभिय फार दीहर-ललंत - जीहा सहस्स विफ्फुरण भीइ - जणगेहिं । असरिस अमरिस वस विप्पमुक्क फुंकार सहं ॥ २३७ ॥ अइगरुय पन्नगेहिं समंतओ वेढिओ अणेगेहिं । एगो दिव्वागारो पुरिसो दिट्ठो अहे तस्स ॥ २३८॥ - - तत्तो मुहो अहं चलिओ । सरलं - - - - - · दर्शनमात्रोत्पादित अतिगुरुक भयैः कृष्ण शरीर समुद्भूत - भूरि प्रभा भरित 50 उत्तुंगमइगरुयं ।। २३४ ।। - · . For Private & Personal Use Only - रक्त-नेत्रः । गगनैः || २३५|| www.jainelibrary.org
SR No.525054
Book TitleSramana 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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