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________________ जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त एवं उसके समान्तर भारतीय दर्शन में प्रचलित अन्य सिद्धान्त : ८९ धारणाओं के समुचित समन्वय के आधार पर स्थापित है। आचार्य सिद्धसेन ने कहा है कि काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ परस्पर निरपेक्ष रूप में कार्य की व्याख्या करने में असमर्थ हो जाते हैं जबकि यही सिद्धान्त परस्पर सापेक्ष रूप से समन्वित होकर कार्य की व्याख्या में सफल हो जाते हैं।२१ सभी आस्तिक दर्शनों ने एक ऐसी सत्ता को स्वीकार किया है जो आत्मा या चेतना की शुद्धता को प्रभावित करती है, जैन दर्शन उसे कर्म कहता है। वही सत्ता वेदान्त में 'माया' या 'अविद्या', सांख्य में 'प्रकृति', न्यायदर्शन में 'अदृष्ट' और मीमांसा में अपर्व के नाम से कही गयी है। बौद्ध दर्शन में वही कर्म के साथ-साथ अविद्या, संस्कार और वासना के नाम से जानी जाती है। न्याय दर्शन के 'अदृष्ट' और 'संस्कार' तथा वैशेषिक दर्शन के 'धर्माधर्म' भी जैन दर्शन के कर्म के समानार्थक हैं। इन सभी विचारधाराओं में यह समानता है कि सभी कर्म संस्कार को आत्मा का बन्धन या दु:ख का कारण स्वीकार करते हैं। जिस प्रकार शरीर रसायनों और रक्त रसायनों के परिवर्तन हमारे संवेगों (मनोभावों) का कारण होते हैं और संवेगों के कारण हमारे रक्त रसायनों और शरीर रसायन में परिवर्तन होते हैं तथा दोनों परिवर्तन परस्पर सापेक्ष हैं, उसी प्रकार कर्म के लिए आत्म तत्त्व और जड़ कर्म वर्गणाएं परस्पर सापेक्ष हैं। जड़ कर्म वर्गणाओं के कारण मनोभाव उत्पन्न होते हैं और उन मनोभावों के कारण पुन: जड़ कर्म परमाणुओं का आम्रव एवं बन्ध होता है और वही अपनी विपाक अवस्था में पुन: मनोभावों का कारण बनते हैं। इस प्रकार मनोभावों (आत्मिकप्रवृत्ति) और जड़ कर्म परमाणुओं के परस्पर प्रभाव का क्रम उसी प्रकार चलता रहता है जैसे वृक्ष और बीज में। जड़ कर्मपरमाणु में और आत्मा में बन्धन की दृष्टि से क्रमश: निमित्त और उपादान का सम्बन्ध. माना गया है। अत: जड़ कर्म वर्गणाओं के निमित्त से आत्मा बन्ध करता है। कर्म के सभी आवरण नष्ट होने के बाद बन्धन की परिसमाप्ति एवं मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। अत: जैन दर्शन में वर्णित कर्म सिद्धान्त के समान्तर भारतीय दर्शन में अनेक अवधारणाएं उपलब्ध हैं। किन्तु जैन कर्म सिद्धान्त विषयक साहित्य के निष्पक्ष अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन कर्म-सिद्धान्त भारतीय दर्शन की अन्याय कर्म सम्बन्धी अवधारणाओं से श्रेष्ठ एवं वैज्ञानिक है। सन्दर्भ : १. आचारांग - संपा० मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, १९८०, १/३/११० पृ० ९२। २. अथर्ववेद - १९/५३/१,२,३,४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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