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________________ जैन दर्शन में अनेकान्तवाद श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ जनवरी- जून २००४ डॉ० श्रीमती शारदा सिंह * भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत आने वाली दो प्रधान धाराओं में जैन और बौद्ध अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। ये दोनों श्रमण परम्परा का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन दोनों ही धाराओं में सापेक्षतावाद के सिद्धान्त की स्पष्ट झलक दिखायी देती है। बौद्ध दर्शन में इसे विभज्यवाद और जैन दर्शन में इसकी परिणति अनेकान्तवाद में देखी जा सकती है। अनेकान्तवाद इन दोनों का व्यापक या विकसित रूप है। इस भूमिका पर ही आगे चल कर सगुण और निर्गुण के वाद-विवाद का तथा ज्ञान और भक्ति झगड़े को सुलझाया गया। आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्तता की प्रतिष्ठा कर महावीर ने अपनी दृष्टि को व्यापकता प्रदान की । भारत में उस युग के दर्शनों और धर्मों के परस्पर झगड़ों की ओर इन संघर्षों से होने वाले राग-द्वेष को देखते हुए इनके शमन के लिये महावीर ने अनेकान्तवाद का संदेश दिया। विभिन्न धर्मों और दर्शनों में निहित सत्यों को स्वीकार करना और उनमें परस्पर समन्वय करना अनेकान्त है । वास्तव में अनेकान्तवाद के उद्भव के पीछे जैन आचार्यों की दूरदृष्टि रही है। उनके अनुसार दार्शनिक दृष्टि संकुचित न होकर विशाल होनी चाहिए। जितने भी धर्म वस्तु में प्रतिभाषित हैं उन सबका समावेश उस दृष्टि में होनी चाहिए। यह ठीक है कि हमारा दृष्टिकोण किसी समय किसी एक धर्म पर विशेष बल देता है। किसी समय किसी दूसरे धर्म पर | इतना होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि वस्तु में अमुक धर्म है और कोई धर्म नहीं है । वस्तु का पूर्ण विशलेषण करने पर प्रतीत होगा कि वास्तव में हम जिन धर्मों का निषेध करना चाहते हैं वे सब धर्म वस्तु में विद्यमान हैं। इस दृष्टि को सामने रखते हुए वस्तु अनन्त धर्मात्मक कही जाती है । वस्तु स्वभाव से ही ऐसी है कि उसका अनेक दृष्टियों से विचार किया जा सकता है और अनेक दृष्टियों से विचार करने पर ही वस्तु के यथार्थ ज्ञान और पूर्ण ज्ञान की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। Jain Education International अब अनेकान्त शब्द को लें इसकी व्युत्पत्ति सप्तभंगी तरंगिणी' में इस प्रकार 'अनेके अन्ताः धर्माः यस्मिन् वादे सः अनेकान्तवादः ' यहां अन्त शब्द धर्म वाचक है। सप्तभंगी तरंगिणी में कहा गया है अनेकान्तत्वम् नाम् अनेकधर्मात्वकत्वम् । वात्स्यायनन्यायभाष्य में भी अन्त शब्द का यही अर्थ किया गया है सत्यभिचार: * पूर्व शोध छात्रा, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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