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________________ ६२ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४ राशि से सुशोभि दूसरा आकाश तल ही हो। वह समुद्र फेन के टुकड़ों के बहने ऐसा जान पड़ता था मानो रात्रि के समय उसने जो चन्द्रमा की किरणों के समूह का पान किया था उसे ही फेन के बहाने उगल रहा हो। कभी अत्यन्त चञ्चल कुलाचलों के समान तरङ्गों के संगठन का अनुभव करने वाले तिमि-तिमिङ्गल जाति के मच्छ पत्रों की तरह उसकी सेवा कर रहे हों।...... कहीं पर विस्तृत मूंगा के वनों की पंक्ति से सुशोभित होने के कारण ऐसा जान पड़ता था मानो वड़वानल को ही प्रत्यक्ष दिखला रहा हो। वह कहीं सामने आई हयी गङ्गा, सिन्धु आदि प्रमुख नदियों को अपनी तरङ्ग रूपी भुजाओं द्वारा आलिङ्गन कर रहा हो। १० जीवन्धरचम्पू में अन्य विभिन्न स्थलों पर समागत विजयार्ध पर्वत का वर्णन १, वसन्त ऋतु का वर्णन१२, वन क्रीड़ा३ और जलक्रीड़ा४ आदि के माध्यम से प्रकृति के वैभव का दिग्दर्शन कराकर महाकवि हरिचन्द्र ने यह शिक्षा दी है कि हमें अपने पर्यावरण को सुरक्षित रखने हेतु इन प्राकृतिक संसाधनों की सतत् रक्षा करनी चाहिये। काव्यों में अधिक से अधिक प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन का एक हेतु यह है कि हमारी प्रकृति जितनी समृद्ध होगी मानव जीवन उतना ही सुख समृद्धि पूर्ण होगा। जीवन्धरचम्पू में उल्लिखित श्रावकाचार१५ और श्रमणाचार१६ का तात्पर्य यह है कि मानव को संयम का पालन करना चाहिये, जिससे जनसंख्या सीमित रहे और प्रकृति उससे कई गुनी समृद्ध हो तथा फल-फूल और वनस्पतियाँ प्रत्येक मानव को आवश्यकता से भी अधिक उपलब्ध हों। मानव-जीवन प्रकृति के निकट हो। इससे हमारे जीवनोनयन के लिये सुख-शान्ति का साधक आध्यात्मिक वातावरण तैयार होगा। सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिस्थितियाँ मानव जीवन के अनुकूल होंगी। साधनों की अधिकता के कारण परस्पर द्वन्द्व की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा। मानव-मानव में सौहार्द बढ़ेगा। अधिकारों के साथ कर्तव्य पालन की भावना सुदृढ़ होगी। अनावश्यक मारकाट से मानव मुक्त होगा और जैनधर्म के मूल सिद्धान्त अहिंसा को बल मिलेगा। काव्यों में चारित्र सम्पन्न अथवा संयम का पालन करने वाले महापुरुषों का चरित्र-चित्रण करने से हमें उन जैसा चरित्रवान् अथवा संयमपूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है। जीवन्यरचम्पू में जीवन्धर स्वामी का चरित्र जहाँ हमें संयम पूर्ण जीवन जीने की कला सिखलाता है वहीं मानव जीवन के अन्तिम लक्ष्यभूत परम पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति हेतु भी हमारा मार्गदर्शन करता है। जीवन्धरचम्पू की सम्पूर्ण कथा का मूल एक ओर काष्ठांगार की लोभ प्रवृत्ति है और दूसरी ओर है उसके निवारण के लिये जीवन्धर स्वामी का सतत् संघर्ष। अत: जीवन के अन्तिम क्षणों में भारतीयविद्या के मूलभूत स्वरूप 'योगेनान्ते तनु त्यजाम्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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