SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४ विभावास्था से स्वभावास्था की ओर प्रवृत्त होना साधना है अर्थात् बाह्य दृष्टि का परित्याग कर अन्तर्दृष्टि में प्रतिष्ठित होना साधना है। साधना में साध्य और साधक का स्थान सर्वोपरि है। आत्मा की अपूर्णावस्था ही साधकावस्था है, जबकि उसकी पूर्णावस्था साध्य है। मानव की मूलभूत क्षमताएँ साध्य और साधक दोनों ही अवस्थाओं में सम रहती हैं। अन्तर इनमें क्षमताओं का नहीं, प्रत्युत क्षमताओं को योग्यताओं में परिणत कर देने का है। यहाँ पर स्वभाविक जिज्ञासा समुत्पन्न होती है कि षडावश्यक के रूप में प्रतिपाद्य आचरण का नैतिक साधना में क्या महत्त्व है? इसके आचार पालन से मानव साधक से साध्य में परिणत होकर क्या समस्त विषमताओं से निवृत्ति पा सकता है? इसके लिए अति उत्तम होगा कि पूर्वविवेचित षडावश्यकों पर पुनः दृष्टिपात् करें। जैन-धर्म में षडावश्यक के अन्तर्गत सर्वप्रथम सामायिक का प्रतिपादन किया गया, उद्देश्य था समता की प्राप्ति। समता से तात्पर्य है - मन की स्थिरता, रागद्वेष का उपशमन, सुख-दुःख में निश्चल रहना और समभाव में उपस्थित होना। कर्मों के निमित्ति से राग-द्वेष के विषमभाव का आविर्भाव होता है। उन विषमताओं से अपनेआपको हटाकर स्व-स्वरूप में रमण करना समता है। समता में साधक आत्मशक्तियों को केन्द्रित कर अपनी स्वाभाविक शक्ति को प्रकट करता है। इनकी अनुपस्थिति में ही द्वन्द्व और तनाव के वातावरण का सृजन होता है, परिणामत: प्रकृति में विकृति, व्यक्ति में तनाव, समाज में विषमता, युग में हिंसा आदि तत्वों का उदय होता है। इनकी निवृत्ति हेतु ही अहिंसा एवं समता प्रभृति सद्गुणों से युक्त श्रेष्ठ आचरण अर्थात सामायिक-साधना सम्पन्न की जाती है। सामायिक-साधना व्यक्ति, जाति, अथवा समाज विशेष तक सीमित नहीं है, प्रत्युत सभी के लिए है। इसके आचरण से जीवन के विविध पक्षों में समन्वय स्थापित होता है, जिससे न केवल व्यक्तिगत जीवन का संघर्ष समाप्त होता है, प्रत्युत सामायिक जीवन के संघर्ष भी नष्ट हो जाते हैं। समत्वयोगी साधक भी वैचारिक जगत् के संघर्ष के प्रति उदासीन होता है और उसमें उसकी भोगासक्ति नहीं होती है। वह तो उदात्त भाव का पोषक है, जो ‘जीओ और जीने दो' के सिद्धान्त में विश्वास रखता है। समत्व को जीवन में उतारने के पश्चात् व्यक्ति चतुर्विंशतिस्तव के माध्यम से महापुरुषों के गुणों का उत्कीर्तन करता है और उसको जीवन में धारण करता है। इससे व्यक्ति के हृदय में आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार होता है। उसके सामने त्याग-वैराग्य की ज्वलन्त प्रतिकृति होती है, जिससे उसके समस्त अवगुणों का क्षय होता है, परिणामत: वह स्वयं में निहित शक्ति का साक्षात्कार करता है। ध्यात्व है कि ये तीर्थंकर कोई मुक्तिदाता नहीं हैं, प्रत्युत वे आदर्श मात्र हैं। इस आदर्श की छत्र-छाया में साधक को अपने में निहित शक्ति की सम्प्राप्ति हेतु स्वयं पुरुषार्थ करना आवश्यक है। इससे ही साधक की श्रद्धा परिमार्जित होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy