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________________ जैन दर्शन में निहित वैज्ञानिक तत्वः : २१ सारणी से स्पष्ट है कि जैन आगमों में निहित गणितीय विषयों की सूची अत्यन्त व्यापक है और उसमें गणित का बहत बड़ा क्षेत्र समाहित है। अभयेदवसूरि की व्याख्या में कुछ त्रुटि रह गई थी जिसे प्रो० दत्त ने काफी हद तक दूर किया किन्तु उनके सम्मुख सीमित मात्रा में मात्र कुछ आगम ही उपलब्ध होने के कारण उनकी दृष्टि रज्ज एवं रासी शब्द के मूल तक नहीं पहुँच सकी जिसे एल०सी० जैन ने सक्षमतापूर्वक पकड़ा है। जैन आगमों एवं परिवर्ती टीका साहित्य के एक बड़े भाग का अध्ययन न करने के कारण ही १९२९ में प्रकाशित अपने आलेख 'The Jaina School of Mathematics' में दत्त ने लिखा कि - It should be noted that the necessity of Jaina priests to learn Mathematics arises by way of finding the proper time and place for the religious ceremonics.12 जबकि वास्तविकता यह है कि कर्म प्रकृतियों के आस्त्रव, बंध, संवर एवं निर्जरा को सम्यक् रूप से समझने, अध्यात्म के गूढ़ विषयों के स्पष्टीकरण, लोक के स्वरूप, उसके आकार-प्रकार, विभिन्न प्रकार की जीव राशियों की गणना, उनमें परस्पर सम्बन्ध आदि को स्पष्ट करने के लिए गणित को एक साधन के रूप में प्रयोग में लाया गया है। यह सत्य है कि दीक्षा, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि का ज्ञान आवश्यक है किन्तु यह केवल एक पक्ष है। दार्शनिक विषयों की व्याख्या में समाहित गणितीय ज्ञान विशेषत: कर्म सिद्धांत का गणित अधिक परिष्कृत एवं उपयोगी है। वस्तुत: जैन आगमों में निहित गणितीय सामग्री को स्थूलरूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। १. लौकिक गणित २. लोकोत्तर गणित लौकिक गणित के अन्तर्गत स्थानमान पद्धति, अंकों के लेखन, विभिन्न प्रकार की मापन पद्धतियाँ, शून्य एवं अंकों पर विभिन्न प्रकार के परिकर्म, यथा संकलन, व्यकलन, गुणन, भाग, वर्ग, वर्गमूल, धन, धनमूल, पाटीगणित के विभिन्न व्यवहार, यथा श्रेणी व्यवहार, मिश्रक व्यवहार, ब्याज आदि के सूत्र, छाया व्यवहार, खात व्यवहार, क्रकचिका व्यवहार, मिश्रक व्यवहार, भित्रों पर परिकर्म, ज्यामिति एवं ठोस ज्यामिति से सम्बद्ध गणित, विभिन्न प्रकार की आकृतियों के क्षेत्रफल, पृष्ठ आदि ज्ञात करना, बीज गणित के अन्तर्गत सरल, वर्ग, घन एवं उच्चघातीय समीकरणों का सृजन एवं उनका हल, क्रमचय-संचय, घातांकों के सिद्धान्त, लघुगुणकीय सिद्धांत आदि से सम्बद्ध गणित आता है और एतद् विषयक सामग्री जैन साहित्य में विपुल परिमाण में अत्यन्त मौलिक रूप में उपलब्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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