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________________ ५० यह तो सत्य है कि शौरसेनी प्राकृत मध्य- देश में बोली जाती थी; किन्तु प्रो० व्यास का यह कथन कि सम्पूर्ण भारत में इसके माध्यम से साहित्य सृजन होता रहा है, साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर मात्र एक अतिशयोक्ति से अधिक कुछ नहीं है, क्योंकि नाटकों के शौरसेनी अंशों को छोड़कर हमें शौरसेनी प्राकृत में कोई भी धर्म या सम्प्रदाय निरपेक्ष सम्पूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। शौरसेनी प्राकृत में जो भी ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, वे मात्र जैनों के दिगम्बर और यापनीय सम्प्रदायों के हैं। यह ठीक है कि इन सम्प्रदायों के आचार्यों ने चाहे वे उत्तर भारत के हों या दक्षिण भारत के, शौरसेनी प्राकृत में ही अपने ग्रन्थ लिखे थे; किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि उसी काल में श्वेताम्बर जैन आचार्य अर्धमागधी या अर्धमागधी प्रभावित महाराष्ट्री प्राकृत में अपनी धार्मिक एवं साहित्यिक कृतियों की रचना कर रहे थे। मात्र इतना ही नहीं, उसी काल में धर्म एवं सम्प्रदाय निरपेक्ष साहित्यिक कृतियों की रचना भी महाराष्ट्री प्राकृत में हो रही थी। जहाँ शौरसेनी प्राकृत में सम्प्रदाय निरपेक्ष साहित्यिक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं, वहीं महाराष्ट्री प्राकृत में ऐसे अनेकों ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इससे यही फलित होता है कि धर्म-निरपेक्ष साहित्यिक कृतियों की रचना की दृष्टि से महाराष्ट्री प्राकृत ही अधिक प्रचलन में थी। आज शौरसेनी प्राकृत की अपेक्षा महाराष्ट्री प्राकृत के अधिक व्यापक होने का प्रमाण है। अतः यह मानना होगा कि शौरसेनी की अपेक्षा महाराष्ट्री प्राकृत अधिक व्यापक रही है और उसके माध्यम से धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष दोनों ही प्रकार के साहित्य का सृजन भारत में होता रहा है । 1 ३. "शौरसेनी प्राकृत ही सभी प्राकृतों एवं अन्य भाषाओं की जननी है।' इस प्रश्न के सम्बन्ध में भी हम अपने पूर्व लेखों में विस्तार से चर्चा कर चुके हैं।' सत्य तो यह है कि सभी प्राकृतें अपनी-अपनी क्षेत्रीय बोलियों से विकसित हुई हैं और इसलिए यह कहना किसी भी स्थिति में युक्तिसंगत नहीं है कि शौरसेनी प्राकृत ही सभी प्राकृतों या अन्य भाषाओं की जननी है। किसी भी एक प्राकृत को दूसरी प्राकृत से उत्पन्न हुआ मानना एक भ्रान्ति है। सभी साहित्यिक प्राकृतें अपनी-अपनी क्षेत्रीय बोलियों के संस्कारित रूप हैं। प्रत्येक क्षेत्रीय बोली की उच्चारणगत अपनी विशेषता होती है, जो उस क्षेत्र की भाषा की भी विशेषता बन जाती है। ये उच्चारणगत क्षेत्रीय विशेषताएँ प्रत्येक क्षेत्र की निजी होती हैं, वे किसी भी दूसरे क्षेत्र के प्रभाव से उत्पन्न नहीं होती हैं। अतः प्रत्येक प्राकृत अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ अपनी क्षेत्रीय १. “जैन आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी या शौरसेनी", डॉ० सागरमल जैन, जिनवाणी, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर, अंक- अप्रैल, मई, जून एवं सितम्बर अंक १९९८ । ज्ञातव्य है कि यह लेख इस कृति में भी इसी नाम से प्रकाशित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525045
Book TitleSramana 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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