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________________ ४४ हो जाता है कि सुदीपजी ने टाँटियाजी के शब्दों में तोड़-मरोड़ की है। ९. "कर्म-सिद्धान्त के बहुत से रहस्यों को जब हम (श्वेताम्बर) नहीं समझ पाते हैं, तब हम 'षट्खण्डागम' के सहारे से ही उनको समझते हैं। 'षट्खण्डागम' में कर्म-सिद्धान्त के समस्त कोणों को बड़े वैज्ञानिक ढंग से रखा गया है।" यह सत्य है कि 'षट्खण्डागम' में जैन कर्म-सिद्धान्त का गम्भीर एवं विशद विवेचन है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि कर्म-सिद्धान्त के रहस्यों को उद्घाटित करने के लिये श्वेताम्बरों को भी कभी-कभी उसका सहारा लेना होता है; किन्तु उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि 'षट्खण्डागम' मूलत: दिगम्बर सम्प्रदाय का ग्रन्थ न होकर उस विलुप्त यापनीय सम्प्रदाय का ग्रन्थ है, जो अर्धमागधी आगमों और उनमें प्रतिपादित स्त्री-मुक्ति के सिद्धान्त को मान्य रखता था, जिसका प्रमाण उसके प्रथम खण्ड का ९३वाँ सूत्र है जिसमें से 'संजद' शब्द के प्रयोग को हटाने का दिगम्बर विद्वानों ने उपक्रम भी किया था और प्रथम संस्करण को मुद्रित करते समय उसे हटा भी दिया था, यद्यपि बाद में उसे रखना पड़ा, क्योंकि उसे हटाने पर उस सूत्र की धवला टीका गड़बड़ा जाती थी। इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने अपनी पुस्तक "जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय" के तृतीय अध्याय में की है और प्रस्तुत प्रसंग में केवल इतना बता देना पर्याप्त है कि यह 'षटखण्डागम' मूलत: 'प्रज्ञापना' आदि अर्धमागधी आगम साहित्य के आधार पर निर्मित हुआ है और इसके प्रथम खण्ड की ‘जीवसमास' की विषयवस्तु से बहुत कुछ समरूपता है और दोनों एक ही काल की कृतियाँ हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन "जीवसमास' की भूमिका में किया गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि 'षट्खण्डागम' में प्रतिपादित जैन कर्म-सिद्धान्त के इतिहास को समझने के लिये अर्धमागधी आगमों एवं श्वेताम्बर कर्म साहित्य का अध्ययन भी उतना ही जरूरी है जितना 'षट्खण्डागम' का। मैं स्वयं भी जैन कर्म-सिद्धान्त के विकसित स्वरूप के गम्भीर विवेचन की दृष्टि से 'षटखण्डागम' के मूल्य और महत्त्व को स्वीकार करता हूँ; किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि अर्धमागधी आगमों एवं श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा प्रणीत प्राचीन कर्म-साहित्य को नकार दिया जावे। १०. "हरिभद्रसरि का सारा 'योगशतक' 'धवला' से है। 'धवला' समस्त जैनदर्शन और ज्ञान का अगाध भण्डार है। 'धवला' में क्या नहीं है?" हरिभद्रसूरि का सारा 'योगशतक' 'धवला' से है इस कथन का अर्थ यह है कि हरिभद्र ने 'योगशतक' को 'धवला' से लिया है। यह विश्वास नहीं होता कि टाँटियाजी जैसे प्रौढ़ विद्वान् को जैन इतिहास का इतना भी बोध नहीं है कि 'धवला' और हरिभद्र के 'योगशतक' में कौन प्राचीन है? अनेक प्रमाणों से यह सुस्थापित हो चुका है कि 'धवला' की रचना नवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और दसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुई जबकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525045
Book TitleSramana 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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