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________________ ३४ यह व्याकरण लिखा है। अत: प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल या आधार है। संस्कृत शब्दरूप को मॉडल/आदर्श मानना इसलिए आवश्यक था कि संस्कृत के जानकार विद्वानों को दृष्टि में रखकर या उनके लिये ही प्राकृत व्याकरण लिखे गये थे। जब डॉ० सुदीपजी शौरसेनी के सन्दर्भ में 'प्रकृति: संस्कृतम्' का अर्थ मॉडल या आदर्श करते हैं तो उन्हें मागधी, पैशाची आदि के सन्दर्भ में 'प्रकृतिः शौरसेनी' का अर्थ भी यही करना चाहिए कि शौरसेनी का मॉडल या आदर्श मानकर इनका व्याकरण लिखा हैइससे यह सिद्ध नहीं होता है कि मागधी आदि प्राकृतों की उत्पत्ति शौरसेनी से हुई है। हेमचन्द्राचार्य ने महाराष्ट्री प्राकृत को आधार मानकर शौरसेनी, मागधी आदि प्राकृतों को समझाया है अत: इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि महाराष्ट्री प्राकृत प्राचीन है या महाराष्ट्री से मागधी, शौरसेनी आदि उत्पन्न हुई हैं। प्राचीन कौन ? अर्धमागधी या शौरसेनी इस सन्दर्भ में टाँटियाजी के नाम से यह भी प्रतिपादित किया गया है कि “यदि वर्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य को ही मूल आगम साहित्य मानने पर जोर देंगे तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से १५०० वर्ष पहले अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य को ही ५०० ई० से परवर्ती मानना पड़ेगा।" ज्ञातव्य है कि यहाँ महाराष्ट्री और अर्धमागधी के अन्तर को न समझते हुए एक भ्रान्ति को खड़ा किया गया है। सर्वप्रथम तो यह समझ लेना चाहिए कि आगमों के प्राचीन अर्धमागधी के 'त्' मध्यवर्ती प्रधान पाठ चूर्णियों और अनेक प्राचीन प्रतियों में आज भी मिल रहे हैं, उससे निःसन्देह यह सिद्ध होता है कि मूल अर्धमागधी में मध्यवर्ती 'त' रहता था और उसमें लोप की प्रवृत्ति नगण्य ही थी और यह अर्धमागधी भाषा शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्राचीन भी है। यदि श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से महाराष्ट्री (जिसे दिगम्बर विद्वान् भ्रान्ति से अर्धमागधी कह रहे हैं) में बदले गये तो फिर उनकी प्राचीन प्रतियों में मध्यवर्ती 'त' के स्थान पर 'द'कार प्रधान पाठ क्यों उपलब्ध नहीं हो रहे हैं जो शौरसेनी की विशेषता है। इस प्रसंग में डॉ० टॉटियाजी के नाम से यह भी कहा गया है कि आज भी 'आचाराङ्गसूत्र' आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है। मैं आदरणीय टॉटियाजी से और भाई सुदीपजी से साग्रह निवेदन करूँगा कि वे आचाराङ्ग, ऋषिभाषित, सूत्रकृताङ्ग आदि की किन्हीं भी प्राचीन प्रतियों में मध्यवर्ती 'त्' के स्थान पर 'द्' पाठ दिखला दें। प्राचीन प्रतियों में जो पाठ मिल रहे हैं, वे अर्धमागधी या आर्ष प्राकृत के हैं, न कि शौरसेनी के हैं। यह एक अलग बात है कि कुछ शब्दरूप आर्ष अर्धमागधी और शौरसेनी में समान रूप में मिलते हैं। वस्तुतः इन प्राचीन प्रतियों में न तो मध्यवर्ती 'त' का 'द' देखा जाता है और "न्" के स्थान पर “ण” की प्रवृत्ति देखी जाती है, जिसे व्याकरण में शौरसेनी की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525045
Book TitleSramana 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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