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________________ हुई है। 'उन्तालीसवें - द्वार' में तीर्थंकरों के आठ महाप्रतिहार्यों और 'चालीसवें -द्वार' में तीर्थंकरों के चौंतीस अतिशयों (विशिष्टताओं) की चर्चा है। १३१ 'इकतालीसवां द्वार' उन अठारह दोषों का उल्लेख करता है, जिनसे तीर्थंकर मुक्त रहते हैं। दूसरे शब्दों में जिनको उन्होंने नष्ट कर दिया है। 'बयालीसवां द्वार' जिन शब्द के चार निक्षेपों की चर्चा करता है और यह बताता है कि ऋषभ, शान्ति, महावीर आदि जिनों के नाम नामजिन हैं जबकि कैवल्य और मुक्ति को प्राप्त जिन भावजिन अर्थात यथार्थजिन हैं। जिन - प्रतिमा को स्थापना जिन कहा जाता है और जो भविष्य में जिन होने वाले हैं वे द्रव्यजिन कहलाते हैं। 'तिरालीसवां द्वार किस तीर्थंकर ने दीक्षा के समय कितने दिन का तप किया था इसका विवेचन करता है इसी क्रम में चवालीसवें द्वार में किस तीर्थंकर को केवलज्ञान उत्पन्न होने के समय कितने दिन का तप था, इसका उल्लेख है । आगे पैतालीसवें द्वार में तीर्थंकरों द्वारा अपने निर्वाण के समय किये गये तप का उल्लेख है। - प्रस्तुत कृति का छियालीसवां द्वार उन जीवों का उल्लेख करता है जो भविष्य तीर्थंकर होने वाले हैं। - सैतालीसवें द्वार में इस बात की चर्चा की गई है कि उर्ध्वलोक, तिर्यकलोक, जल, स्थल आदि स्थानों से एक साथ कितने व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। 'अड़तालीसवां द्वार हमें यह सूचना देता है कि एक समय में एक साथ कितने पुरुष, कितनी स्त्रियां अथवा कितने नपुंसक सिद्ध हो सकते हैं। उनचासवें द्वार में सिद्धों के भेदों की चर्चा है। ज्ञातव्य है कि वैसे तो सिद्धों में कोई भेद नहीं होता किन्तु जिस पर्याय / अवस्था से सिद्ध हुए हैं, उसके आधार पर सिद्धों के पन्द्रह भेदों की चर्चा की गई है। पचासवें द्वार में सिद्धों की अवगाहना अर्थात् उनके आत्म-प्रदेशों के विस्तारक्षेत्र की चर्चा की गई है। इसी क्रम में यह बताया गया है कि उत्कृष्ट अवगाहना वाले दो, जघन्य अवगाहना वाले चार तथा मध्यम अवगाहना वाले एक सौ आठ व्यक्ति एक साथ सिद्ध हो सकते हैं । अवगाहना के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए प्रस्तुत कृति के टीकाकार ने यह भी बताया है कि उत्कृष्ट अवगाहना पांच सौ धनुष और जघन्य अवगाहना दो हाथ परिमाण होती है। यहां यह ज्ञातव्य है कि सिद्धों की उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य अवगाहना के सन्दर्भ में विशेष चर्चा प्रस्तुत कृति के छप्पनवें, सत्तावनवें एवं अठ्ठावनवें द्वार में भी की गयी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525045
Book TitleSramana 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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