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________________ १२५ अनेक विपत्तियां सामने आती हैं किन्तु जब तक सम्पूर्ण ग्रन्थ की सभी गाथायें संकलित न हों तब तक अवशिष्ट गाथाओं के रचनाकार तो नेमिचन्द्रसूरि (द्वितीय) को ही मानना होगा। प्राचीन काल में ग्रन्थ रचना करते समय आगम अथवा प्राचीन आचार्यों की कृतियों से बिना नाम निर्देश के गाथायें उद्धृत कर लेने की प्रवृत्ति रही है और इस प्रकार की प्रवृत्ति श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के रचनाकारों में पाई जाती है। उदाहरण के रूप में मूलाचार में उत्तराध्ययनसूत्र, आवश्यकनिर्युक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि अनेक ग्रन्थों की २०० से अधिक गाथायें उद्धृत हैं। यही स्थिति भगवती आराधना एवं आचार्य कुन्दकुन्द के नियमसार आदि ग्रन्थों की भी है। नियमसार षट्प्राभृत आदि की अनेक गाथाएं श्वेताम्बर आगमों, प्रकीर्णकों, निर्युक्तियों एवं भाष्यों आदि में समरूप मिलती हैं। श्वेताम्बर मान्य आगमों में भी संग्रहणी सूत्र आदि की एवं प्रकीर्णकों में एक दूसरे की अनेक गाथायें अवतरित की गई हैं। इस प्रकार अपने ग्रन्थों में अन्य ग्रन्थों से गाथायें अवतरित करने की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है। ऐसी स्थिति में जब दूसरे दूसरे आचार्यों को तत् - तत् ग्रन्थ का रचनाकार लिया जाता है तो फिर नेमिचंद्रसूरि (द्वितीय) को प्रस्तुत कृति का कर्ता मान लेने पर कौन सी आपत्ति है? पुनः १६०० गाथाओं के इस ग्रन्थ में यदि ६०० गाथायें अन्यकृतक हैं भी तो शेष १००० गाथाओं के रचनाकार तो नेमीचन्द्रसूरि (द्वितीय) हैं ही। प्रवचनसारोद्वार की कौन सी गाथा किस ग्रन्थ में किस स्थान पर मिलती है। अथवा अन्य ग्रन्थों की कौन सी गाथाएँ प्रवचनसारोद्धार के किस क्रम पर हैं इसकी सूची इसी लेख के अन्त में यथास्थान प्रस्तुत है - जैसा कि लेख के प्रारम्भ में कहा जा चुका हैं प्रवचनसारोद्धार पर आचार्य सिद्धसेनसूरि की लगभग विक्रम की १३वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखी गई 'तत्त्वज्ञान - विकासिनी' नामक एक सरल किन्तु विशद टीका उपलब्ध होती है। टीकाकार सिद्धसेनसूरि की तीन अन्य कृतियों- १. पद्मप्रभचरित्र २. समाचारी और ३. एक स्तुति का उल्लेख मिलता है। प्रवचनसारोद्धार की 'तत्त्वज्ञान विकासिनी' नामक यह वृत्ति या टीका टीकाकार की बहुश्रुतता को अभिव्यक्त करती है। उन्होंने इसमें लगभग १०० ग्रन्थों का निर्देश किया है और उनके ५०० से अधिक सन्दर्भों का संकलन किया है। इन उद्धरणों की सूची भी पिण्डवाडा से प्रकाशित प्रवचनसारोद्धार भाग-२ के अन्त में दे दी गई है। इससे वृत्तिकार की बहुश्रुतता प्रामाणित हो जाती है । वृत्तिकार ने जहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525045
Book TitleSramana 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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