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________________ १०५ गुण उसके उत्पत्ति एवं विनाश का आधार है, उनके मध्य योजक कड़ी है। यह सत्य है कि विनाश के लिए उत्पत्ति और उत्पत्ति के लिए विनाश आवश्यक है किन्तु उत्पत्ति और विनाश दोनों के लिए किसी ऐसे आधारभूत तत्त्व की आवश्यकता होती है जिसमें उत्पत्ति और विनाश की ये प्रक्रियायें घटित होती हैं। यदि हम ध्रौव्य पक्ष को अस्वीकार करेंगे तो उत्पत्ति और विनाश परस्पर असम्बन्धित हो जायेंगे और सत्ता अनेक क्षणिक एवं असम्बन्धित क्षणजीवी तत्त्वों में विभक्त हो जायेगी। इन परस्पर असम्बन्धित क्षणिक सत्ताओं की अवधारणा से व्यक्तित्व की एकात्मकता का ही विच्छेद हो जायेगा, जिसके अभाव में नैतिक उत्तरदायित्व और कर्मफल व्यवस्था ही अर्थविहीन हो जायेगी। इसी प्रकार एकान्त ध्रौव्यता को स्वीकार करने पर भी इस जगत् में चल रहे उत्पत्ति और विनाश के क्रम को समझाया नहीं जा सकता। जैन दर्शन में सत् के अपरिवर्तनशील पक्ष को द्रव्य और गुण तथा परिवर्तनशील पक्ष को पर्याय कहा जाता है। अग्रिम पृष्ठों में हम द्रव्य, गुण और पर्याय के सह सम्बन्ध के बारे में चर्चा करेंगे। द्रव्य और पर्याय का सहसम्बन्ध हम यह पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि जैन परस्परा में सत् और द्रव्य को पर्यायवाची माना गया है। मात्र यही नहीं, उसमें सत् के स्थान पर द्रव्य ही प्रमुख रहा है। आगमों में सत् के स्थान पर अस्तिकाय और द्रव्य इन दो शब्दों का ही प्रयोग देखा गया है। जो अस्तिकाय है वे निश्चय ही द्रव्य हैं। इन दोनों शब्दों में भी द्रव्य शब्द मुख्त: अन्य परस्पराओं के प्रभाव से जैन दर्शन में आया है उसका अपना मूल शब्द तो अस्तिकाय ही है । इसमें 'अस्ति' शब्द सत्ता के शाश्वत पक्ष का और काय शब्द अशाश्वत पक्ष का सूचक माना जा सकता है। वैसे सत्ता को काय शब्द से सचित करने की परम्परा श्रमण धारा के प्रक्रुधकात्यायन आदि अन्य दार्शनिकों में भी रही है। भगवतीसूत्र में द्रव्य पक्ष की शाश्वतता और पर्याय पक्ष की आशाश्वतता का चित्रण उपलब्ध होता है उसमें कहा गया है कि 'दव्वट्ठाए सिय सासया पज्जवट्ठाए सिय असासया' अर्थात् अस्तित्त्व को द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत और पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत (अनित्य) कहा गया है। इस तथ्य की अधिक स्पष्टता से चित्रित करते हुए सन्मतितर्क में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर लिखते हैं उपज्जंति चयंति आ भावा नियमेण पज्जवनयस्स । दव्वट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पन्न अविणटुं ।। अर्थात् पर्याय की अपेक्षा से अस्तित्त्व या वस्तु उत्पन्न होती है और विनष्ट होती है, किन्तु द्रव्य की अपेक्षा से वस्तु न तो उत्पन्न होती है और न विनष्ट होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525045
Book TitleSramana 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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