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________________ तथ्यों का सहज संकलन अर्धमागधी आगमों में तथ्यों का सहज संकलन किया गया है अत: अनेक स्थानों पर सैद्धान्तिक दृष्टि से उनमें विसंगतियां पायी जाती हैं। वस्तुतः ये ग्रन्थ अकृत्रिम भाव से रचे गये हैं और उन्हें संगतियुक्त बनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। एक ओर उनमें अहिंसा की सूक्ष्मता के साथ पालन के निर्देश हैं तो दूसरी ओर ऐसे अनेक निर्देश भी हैं जो इस सूक्ष्म अहिंसक जीवनशैली के विपरीत हैं। इस प्रकार एक ओर उनमें न केवल मनि की अचेलता का प्रतिपादन है अपितु उसका समर्थन भी किया गया है, तो दूसरी ओर वस्त्र, पात्र के साथ-साथ मुनि के उपकरणों की लम्बी सूची भी मिल जाती है। एक ओर केशलोंच का विधान है तो दूसरी क्षुर-मुण्डन की अनुज्ञा भी है। उत्तराध्ययन में वेदनीय के भेदों में क्रोध वेदनीय आदि का उल्लेख है, जो कि कर्म सिद्धान्त के ग्रन्थों में यहाँ तक कि स्वयं उत्तराध्ययन के कर्मप्रकृति नामक अध्ययन में भी अनुपलब्ध है, उक्त साक्ष्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्धमागधी आगम साहित्य जैन संघ का, निष्पक्ष इतिहास प्रस्तुत करता है। वस्तुत: तथ्यों का यथार्थरूप में प्रस्तुतीकरण अर्धमागधी आगम साहित्य की विशेषता है। वस्तुत: तथ्यात्मक विविधताओं एवं अन्तर्विरोधों के कारण अर्धमागधी आगम साहित्य के ग्रन्थों का कालक्रम-निर्धारण सहज हो जाता है। अर्धमागधी आगमों में जैनसंघ के इतिहास का प्रामाणिक रूप यदि हम अर्धमागधी आगमों का समीक्षात्मक दृष्टि से अध्ययन करें तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनपरम्परा के आचार एवं विचार में कालक्रम में कछ परिवर्तन हुए। दार्शनिक चिन्तन और आचार-नियमों में कालक्रम में हुए परिवर्तनों को जानने का आधार अर्धमागधी आगम ही है, क्योंकि इन परिवर्तनों को समझने के लिए उनमें तथ्यों के क्रम को खोजा जा सकता है। उदाहरण के रूप में जैन धर्म में साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढमूल होता गया इसकी जानकारी ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग और भगवती के पन्द्रहवें शतक के समीक्षात्मक अध्ययन से मिल जाती है। ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल, असितदेवल, तारायण, याज्ञवल्क्य, बाहुक आदि अन्य परम्परा के ऋषियों को अर्हत् ऋषि कहकर सम्मानित किया गया। उत्तराध्ययन में भी कपिल, नमि, करकण्डु, नग्गति, गर्दभाली, संजय आदि का सम्मानपूर्वक स्मरण किया गया और सूत्रकृतांग में इनमें से कुछ को परम्परा-सम्मत माना गया, यद्यपि जैन परम्परा से उनके आचारभेद को भी दर्शाया गया; वहीं ज्ञाताधर्मकथा में नारद की और भगवती के पन्द्रहवें शतक में मंखलीगोशाल की कटु आलोचना की गई। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि अर्धमागधी आगम साहित्य में जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं के प्रति उदारता का भाव कैसे कम होता गया और साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढमूल होते गये इसका यथार्थ चित्रण उपलब्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525045
Book TitleSramana 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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