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________________ ८४ १. हास्य-सुख या प्रसत्रता की अभिव्यक्ति हास्य है। जैन-विचारणा के अनुसार हास्य का कारण पूर्व-कर्म या वासना-संस्कार है। यह मान कषाय का कारण है। २. शोक-इष्टवियोग और अनिष्टयोग से सामान्य व्यक्ति में जो मनोभाव जागृत होते हैं, वे शोक कहे जाते हैं। १० शोक चित्तवृत्ति की विकलता का द्योतक है११ और इस प्रकार मानसिक समत्व का भंग करने वाला है। कभी-कभी यह क्रोध कषाय में रूपान्तरित हो जाता है। ३. रति (रुचि)- अभीष्ट पदार्थों पर प्रीतिभाव अथवा इन्द्रिय-विषयों में चित्त की अभिरतता ही रति है। इसके कारण ही आसक्ति एवं लोभ की भावनाएँ प्रबल होती हैं। ४. अरति- इन्द्रिय-विषयों में अरुचि ही अरति है। अरुचि का भाव ही विकसित होकर घृणा और द्वेष बनता है। राग और द्वेष तथा रुचि और अरुचि में प्रमुख अन्तर यही है कि राग और द्वेष मनस् की सक्रिय अवस्थाएँ हैं, जबकि रुचि और अरुचि निष्क्रिय अवस्थाएँ हैं। रति और अरति पूर्व कर्म-संस्कारजनित स्वाभाविक रुचि और अरुचि का भाव है। ५. घृणा-घृणा या जुगुप्सा अरुचि का ही विकसित रूप है। अरुचि और घृणा में केवल मात्रात्मक अन्तर ही है। अरुचि की अपेक्षा घृणा में विशेषता यह है कि अरुचि में पदार्थ-विशेष के भोग की अरुचि होती है, लेकिन उसकी उपस्थिति सह्य होती है, जबकि घृणा में उसका भोग और उसकी उपस्थिति दोनों ही असह्य होती है। अरुचि का विकसित रूप घृणा और घृणा का विकसित रूप द्वेष है। ६. भय- किसी वास्तविक या काल्पनिक तथ्य से आत्मरक्षा के निमित्त बच निकलने की प्रवृत्ति ही भय है। भय और घृणा में प्रमुख अन्तर यह है कि घृणा के मूल में द्वेष-भाव रहता है, जबकि भय में आत्म-रक्षण का भाव प्रबल होता है। घृणा क्रोध और द्वेष का एक रूप है, जबकि भय लोभ या राग की ही एक अवस्था है। जैनागमों में भय सात प्रकार का माना गया है, जैसे- (१) इहलोक भय-यहाँ लोक शब्द संसार के अर्थ में न होकर जाति के अर्थ में भी गृहीत है। स्वजाति के प्राणियों से अर्थात् मनष्यों के लिए मनुष्यों से उत्पन्न होने वाला भय, (२) परलोक भय-अन्य जाति के प्राणियों से होने वाला भय, जैसे मनुष्यों के लिए पशुओं का भय, (३) आदान भयधन की रक्षा के निमित्त चोर-डाकू आदि बाह्य कारणों से उत्पन्न भय, ४. अकस्मात भय- बाह्य निमित्त के अभाव में स्वकीय कल्पना से निर्मित भय या अकारण भय। भय का यह रूप मानसिक ही होता है, जिसे मनोविज्ञान में असामान्य भय कहते हैं। ५. आजीविका भय- आजीविका या धनोपार्जन के साधनों की समाप्ति (विच्छेद) का भय। कुछ ग्रन्थों में इसके स्थान पर वेदना-भय का उल्लेख है। रोग या पीड़ा का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525042
Book TitleSramana 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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