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________________ ८२ जैन परम्परा में प्रकारान्तर से मान के आठ भेद मान्य हैं- १. जाति मद, २. कुल मद, ३. बल (शक्ति) मद, ४. ऐश्वर्य मद, ५. तप मद, ६. ज्ञान मद (सूत्रों का ज्ञान), ७. सौन्दर्य मद और ८. अधिकार (प्रभुता)। मान को मद भी कहा गया है। मान निम्न बारह रूपों में प्रकट होता है।- १. मान- अपने किसी गुण पर अहंवृत्ति, २. मद- अहंभाव में तन्मयता, ३. दर्प- उत्तेजना पूर्ण अहंभाव, ४. स्तम्भअविनम्रता, ५. गर्व- अहंकार, ६. अत्युक्रोश- अपने को दूसरे से श्रेष्ठ कहना, ७. परपरिवाद- परनिन्दा, ८. उत्कर्ष- अपना ऐश्वर्य प्रकट करना, ९. अपकर्ष- दूसरों को तुच्छ समझना, १०. उन्नतनाम- गुणी के सामने भी न झुकना, ११. उन्नत- दूसरों को तुच्छ समझना और १२. पुर्नाम- यथोचित रूप से न झुकना। अहंभाव की तीव्रता और मन्दता के अनुसार मान के भी चार भेद हैं १. अनंतानुबन्धी मान- पत्थर के खम्भे के समान जो झुकता नहीं, अर्थात् जिसमें विनयगुण नाममात्र को भी नहीं है। २. अप्रत्याख्यानी मान- हड्डी के समान कठिनता से झुकने वाला अर्थात जो विशेष परिस्थितियों में बाह्य दबाव के कारण विनम्र हो जाता है। ३. प्रत्याख्यानी मान- लकड़ी के समान प्रयत्न से झुक जाने वाला अर्थात् जिसके . अन्तर में विनम्रता तो होती है, लेकिन जिसका प्रकटन विशेष स्थिति में ही होता है। . ४. संज्वलन मान- बेंत के समान अत्यन्त सरलता से झुक जानेवाला अर्थात् जो आत्म-गौरव को रखते हुए भी विनम्र बना रहता है। माया ___ कपटाचार माया कषाय है। भगवतीसूत्र के अनुसार इसके पन्द्रह नाम हैं:- १. माया- कपटाचार, २. उपाधि- ठगने के उद्देश्य से व्यक्ति के पास जाना, ३. निकृतिठगने के अभिप्राय से अधिक सम्मान देना, ४. वलय- वक्रता पूर्ण वचन, ५. गहनठगने के विचार से अत्यन्त गूढ़ भाषण करना, ६. नूम- ठगने के हेतु निकृष्ट कार्य करना, ७. कल्क- दूसरों को हिंसा के लिए उभारना, ८. करूप- निन्दित व्यवहार करना, ९. निहता- ठगाई के लिए कार्य मन्द गति से करना, १०. किल्विषिकभांडों के समान कुचेष्टा करना, ११. आदरणता- अनिच्छित कार्य भी अपनाना, १२. गृहनता- अपनी करतूत को छिपाने का प्रयत्न करना, १३. वंचकता- ठगी और १४. प्रति-कुंचनता- किसी के सरल रूप से कहे गये वचनों का खण्डन करना, १५. सातियोग-उत्तम वस्तु में हीन वस्तु की मिलावट करना। ये सब माया की ही विभिन्न अवस्थाएँ हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525042
Book TitleSramana 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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