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________________ भूमिका ६१ सामर्थ्य होती है, उसे संज्ञी कहा जाता है। गुणस्थानों की अपेक्षा से यहाँ यह बताया है कि असंज्ञी जीवों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है, जबकि संज्ञी जीवों में सभी गुणस्थान सम्भव होते हैं। आहार-मार्गणा के अन्तर्गत जीवों के दो भेद किये गये हैं- (१) आहारक, (२) अनाहारक। इसमें यह भी बताया गया है कि पुनर्जन्म ग्रहण करने हेतु विग्रहगति से गमन करने वाले जीव, केवली-समुद्घात करते समय केवली तथा अयोगी केवली और सिद्ध ये अनाहारक होते हैं। शेष सभी अहारक होते हैं। इस प्रकार जीवसमास के इस प्रथम सत्पदप्ररूपणा-द्वार में चौदह मार्गणाओं का चौदह गुणस्थानों से पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट किया गया है। यद्यपि गम्भीरता से देखने पर यह लगता है कि जीवसमास उस प्रारम्भिक स्थिति का ग्रन्थ है, जब मार्गणाओं और गुणस्थानों के सह-सम्बन्ध निर्धारित किये जा रहे थे। जीवसमास का दूसरा द्वार परिमाणद्वार है इस द्वार में सर्वप्रथम परिमाण के द्रव्य-परिमाण, क्षेत्र-परिमाण, काल-परिमाण और भाव-परिमाण ये चार विभाग किये गये हैं। पुनः द्रव्य-परिमाण के अन्तर्गत मान, उन्मान, अवमान, गनिम और प्रतिमान- ऐसे पाँच विभाग किये गये है जो विभिन्न प्रकार के द्रव्यों (वस्तुओं) के तौलमाप से सम्बन्धित है, क्षेत्र-परिमाण के अन्तर्गत अंगुल, वितस्ति, कुक्षी, धनुष, गाऊ, श्रेणी आदि क्षेत्र को मापने के पैमानों की चर्चा की है। इसी क्रम में अंगुल की चर्चा करते हुए उसके उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल ऐसे तीन भेद किए हैं। पुनः इनके भी प्रत्येक के सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, धनांगुल ऐसे तीन-तीन भेद किये गये हैं। सूक्ष्म क्षेत्रमाप के अन्तर्गत परमाणु, उर्ध्वरेणू, त्रसरेणू, रथरेणू, बालाग्र, लीख, जूं और यव की चर्चा की गई है और बताया गया है कि. आठ यवों से एक अंगुल बनता है। पुनः छ: अंगुल से एक पाद, दो पाद से एक वितस्ति तथा दो वितस्ति का एक हाथ होता है, ४ हाथों का एक धनुष होता है, २००० हाथ या ५०० धनुष का एक गाऊ (कोश) होता है। पुनः ४ गाऊ का एक योजन होता है। काल-परिमाण की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि काल की सबसे सूक्ष्म इकाई समय है। असंख्य समय की एक आवलिका होती है। संख्यात आवलिका का एक श्वासोच्छ्वास अर्थात् प्राण होता है। सात प्राणों का एक स्तोक होता है। सात स्तोकों का एक लव होता है। साढ़े अड़तीस लव की एक नालिका होती है। दो नालिकाओं का एक मुहूर्त होता है। तीस मूहुर्त का एक अहोरात्र (दिवस) होता है। पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष होता है। दो पक्ष का एक मास होता है। दो मास की एक ऋतु होती है। तीन ऋतुओं का एक अयन होता है। दो अयन का एक वर्ष होता है। चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525042
Book TitleSramana 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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