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________________ होती है। कति के अन्तिम दशम अंक में भी उन्होंने नाभिपत्र ऋषभदेव के स्मरण करने का निर्देश किया है। इससे यह सुस्पष्ट हो जाता है कि आचार्य ने कृति के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक अपनी जैन परम्परा का निर्वाह किया है। यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आचार्य ने पार्श्व, महावीर आदि किसी अन्य तीर्थङ्कर की अपेक्षा प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव का ही चयन क्यों किया? वस्तुत: इसके पीछे आचार्य की एक गहन सूझ छिपी हुई है। मात्र यही नहीं. उन्होंने ऋषभदेव का चयन करके भी सम्पूर्ण कृति में कहीं भी उनके लिए ऋषभ शब्द का प्रयोग न करके नाभेय, नाभिसनु, नाभिसमुद्भव जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। यहाँ स्वाभाविक रूप से यह भी जिज्ञासा हो सकती है कि उन्होंने भगवान् ऋषभदेव का चयन करके भी उनके लिए ऋषभ का प्रयोग न करके नाभेय या नाभिसून जैसे नामों का प्रयोग क्यों किया? यह तो सुनिश्चित है कि जैन परम्परा में ऋषभदेव को नाभिनन्दन, नाभेय आदि नामों से जाना जाता है, किन्तु इस विशिष्ट शब्द के चुनाव में भी आचार्य रामचन्द्रसूरि की एक दीर्घदृष्टि रही हुई है। यह सुविदित है कि ब्राह्मण परम्परा में नाभेय का अर्थ ब्रह्मा भी होता है, यद्यपि उसी परम्परा के ग्रन्थ श्रीमद्भागवत में अष्टम अवतार के रूप में ऋषभ का निर्देश भी नाभिपुत्र के रूप में हुआ है। इस प्रकार आचार्य रामचन्द्रसूरि इस विशिष्ट शब्द का प्रयोग करके अपने इस नाटक को दोनों ही परम्पराओं के लिए ग्राह्य बना देते हैं, ताकि दशंक और मंचन करने वाले दोनों ही अपनी-अपनी परम्परा के अनुरूप उसका अर्थ ग्रहण कर सकें। फिर भी यह सुस्पष्ट है कि नाभेय शब्द से कृतिकार का वाच्य भगवान् ऋषभदेव ही रहे हैं ब्रह्मा नहीं, क्योकि कृतिकार को जब भी उनके सन्दर्भ में विशेषण देने का प्रश्र आया, उन्होंने उनके निवृत्तिप्रधान विरक्त स्वरूप का ही चित्रण किया है. जो ब्रह्माजी की अपेक्षा ऋषभदेव के साथ ही अधिक संगत सिद्ध होता है। पुनः प्रस्तुत कृति में नाभेय और नाभिसमुद्भव के साथ-साथ एक स्थल पर सकलदेवताधि चक्रवर्ती नाभिसूनु' शब्द का प्रयोग भी किया है, जो पूर्णत: ऋषभदेव पर ही लागू होता है। नाभेय और नाभि-समुद्भब का अर्थ तो किसी अपेक्षा से ब्रह्मा हो सकता है, किन्तु नाभिसूनु शब्द तो मात्र ऋषभदेव के सन्दर्भ में ही ३. स्मरामि निष्ठितक्लेशं देवं नाभिसमुद्भवम् । -- यही, पृ० १८५। ४. यः प्राप निवृति, क्लेशाननुभूय भवार्णवे। -- पृ० १। स्मरामि निष्ठित क्लेश। - पृ० १८५। ५. सकलदेवताधिचक्रवर्ती नाभिसूनु। यही, पृ० १३७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525042
Book TitleSramana 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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