SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३) नन्दिसंघ बलात्कार गण की पट्टावली में उल्लेखित वीर निर्वाण सं० ६०९ से ६३१ के मध्य आचार्य पद पर रहे हुए आचार्य भद्रबाह के शिष्य गुप्तिगुप्त थे। आचार्य हस्तीमलजी के अनुसार इन्हीं भद्रबाहु के कथानक को थोड़ा अतिरंजित करके ही श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया गया है। मेरी दृष्टि में वस्तुतः ये शिवभूति के शिष्य भद्रगुप्त थे। इनके काल में वीर निर्वाण संवत् ६०६ या ६०९ में उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में पुनः अचेलकत्व की प्रतिष्ठा हुई एवं बोटिक या यापनीय परम्परा का विकास भी इसी काल में हुआ। नन्दीसूत्र एवं कल्पसूत्र की स्थविरावली में इनका उल्लेख शिवभूति के शिष्य के रूप में है। श्वेताम्बर पट्टावलियों में इनके शिष्य श्रीगुप्त का उल्लेख है। सम्भव है कि श्रीगुप्त ही गुप्तिगुप्त हों। (४) निमितज्ञ भद्रबाहु दिगम्बर परम्परा के अनुसार ग्यारह अंग के विच्छेद के पश्चात् हुए हैं। श्रुतस्कन्ध के कर्ता के अनुसार इनका काल विक्रम की तीसरी शताब्दी माना गया है। मेरी दृष्टि में ये गौतमगोत्रीय आर्यभद्र हैं, जो नियुक्ति के कर्ता तथा आर्य विष्णु के प्रशिष्य और आर्य कालक के शिष्य हैं तथा स्थविर वृद्ध के गरु और सिद्धसेन दिवाकर के दादा गुरु हैं। यही काल स्कन्दिल की माथुरी एवं वल्लभी की नागार्जुन की वाचना का है क्योंकि आगमों की माथुरी वाचना एवं नियुक्तियाँ यापनीयों को मान्य रही हैं। (५) वीर निर्वाण के १००० वर्ष पश्चात् हुए भद्रबाहु दिगम्बर परम्परा के अनुसार प्रथम अंग के धारक थे। मेरी दृष्टि में ये श्वेताम्बर प्रबन्धों में उल्लेखित वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु हैं। वराहमिहिर की पंच सिद्धान्तिका में उसका रचनाकाल शक सं० ४२७ बताया है, इसमें १३५ वर्ष जोड़ने पर विक्रम सं० ५६२ आता है। इसमें ४७० जोड़ने पर वीर निर्वाण सं० १०३२ आता है। यही कारण है कि इनका उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में नहीं है। यदि हेमचन्द्र की मान्यता के आधार पर इसमें ६० वर्ष कम भी करें तो भी इनका काल वीर निर्वाण सं० ९७२ आता है जो इस वाचना के मात्र ८ वर्ष पूर्व है, अत: कल्पसूत्र स्थविरावली में इनका उल्लेख होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इनके समय में श्वेताम्बर सम्प्रदाय एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में अस्तित्व में आ गया था और श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीयों के बीच भेद रेखा स्पष्ट हो चुकी थी। इस प्रकार आचार्य हस्तिमलजी द्वारा उल्लेखित दिगम्बर परम्परा में विभिन्न कालों में हुए पाँच भद्रबाहु में से चार का उल्लेख श्वेताम्बर स्रोतों में प्राच्यगोत्रीय भद्रबाहु, भद्रगुप्त, गौतम गोत्रीय आर्यभद्र और नैमित्तिक वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु नाम से प्राप्त होता है। इन चारों की दिगम्बर स्रोतों से प्राप्त नामों से कालिक समरूपता भी है ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525042
Book TitleSramana 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy