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________________ १३ नामक आचार्य से रहा है। फिर वे चाहे शिवभूति के शिष्य और आर्य नक्षत्र के गुरु आर्यभद्रगुप्त (ई० दूसरी शती का पूर्वार्ध) हों अथवा उनकी शिष्य परम्परा में हुए गौतम गोत्रीय आर्यभद्र ( ई० तीसरी का पूर्वार्ध), जिनके नाम से भद्रान्वय चला और जो नियुक्तियों के कर्ता हैं तथा जो आर्य विष्णु के प्रशिष्य आर्य कालक के शिष्य तथा स्थविर वृद्ध के गुरु और स्कन्दिल एवं सिद्धसेन दिवाकर के प्रगुरु रहे हैं ये सभी यापनीय एवं श्वेताम्बर दोनों के पूर्वज रहे हैं - यही कारण है कि ये दक्षिण भारत में विकसित अचेलकत्व की समर्थक दिगम्बर और यापनीय परम्परा में भी मान्य रहे हैं । मेरी दृष्टि में दिगम्बर परम्परा की पट्टावली में उल्लेखित आर्य नक्षत्र और आर्य विष्णु भी वे ही हैं जिनका उल्लेख कल्पसूत्र एवं नन्दीसूत्र की स्थविरावली में मिलता है । ४० इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के भद्रबाहु कथानकों में उल्लेखित स्थूलभद्र, रामिल्ल और स्थूलवृद्ध (स्थूलाचार्य) किसी एक भद्रबाहु से सम्बन्धित न होकर पृथक्-पृथक् भद्र नामक आचार्यों से हैं । स्थूलभद्र का सम्बन्ध श्रुतकेवली भद्रबाहु से रहा हैसम्भवतः इनके द्वारा जिनकल्प के स्थान पर स्थविर कल्प का विकास हुआ हो । हो सकता है कि रामिल्ल का सम्बन्ध भद्रान्वय के संस्थापक आर्य भद्रगुप्त से हो और ये रामिल्लाचार्य विदिशा में स्थापित जिनमूर्तियों में उल्लेखित रामगुप्त हो इनसे ही आगे चलकर भद्रान्वय और यापनीय सम्प्रदाय का विकास हुआ है। जबकि स्थूलवृद्ध वस्तुतः स्थविर वृद्ध हों जिनके शिष्यों से वर्तमान श्वेताम्बर परम्परा का विकास हुआ। ज्ञातव्य है कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार गौतमगोत्रीय आर्यभद्र स्थविरवृद्ध के गुरु हैं। इस प्रकार ये तीनों भद्र नामक तीन अलग-अलग आचार्यों से सम्बद्ध रहे, जिन्हें श्रुतकेवली आर्य भद्रबाहु की कथा के साथ गड्डमड्ड कर दिया गया है। मुझे ऐसा लगता है कि परवर्ती दिगम्बर आचार्यों ने जो भद्रबाहु कथानक तैयार किये उनमें अनुश्रुतियों से प्राप्त इन भद्र नामक विभिन्न आचार्यों के कथानकों को आपस में मिला दिया और श्वेताम्बर को अति निम्न स्तरीय या भ्रष्ट दिखाने के लिये घटनाक्रमों की स्वैर कल्पना से रचना कर दी। यदि उस युग के श्वेताम्बर मुनि इतने निम्न एवं भ्रष्ट आचरण वाले होते तो हलसी के उस अभिलेख में (जिसमें निर्ग्रन्थों एवं श्वेताम्बरों का साथ-साथ उल्लेख हुआ है) श्वेताम्बरों के लिये- अर्हत्प्रोक्त सद्धर्मकरणपरस्टा श्वेतपट्टमहाश्रमण संघ जैसी आदरसूचक शब्दावली का प्रयोग नहीं होता । ४१ ज्ञातव्य है कि यह अभिलेख दक्षिण भारत के उत्तरी कर्नाटक के उस क्षेत्र का है जहाँ निर्ग्रन्थ दिगम्बर सम्प्रदाय एवं यापनीय सम्प्रदाय अधिक प्रभावशाली था । वहाँ राजा के द्वारा ई० ० सन् की पाँचवी शती में श्वेताम्बरों के लिये महातपस्वी जैसे शब्दों के प्रयोग से यह सिद्ध हो जाता है कि उस युग के श्वेताम्बर मुनि इतने आचारहीन नहीं थे जैसा कि इन भद्रबाहु चरित्रों में उन्हें चित्रित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525042
Book TitleSramana 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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