SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३७ 'गोत्र कर्म के बन्ध को मुक्ति में बाधक, अनुपादेय या हेय नहीं मानता है। क्योंकि तीर्थंकर नाम गोत्रकर्म के बन्ध के पश्चात् नियमत: तीसरे भव में अवश्य मुक्ति होती है। पुनः तीर्थकर नाम-गोत्र कर्म का, जब तक उनके आयुष्य कर्म की स्थिति होती है तब तक ही अस्तित्व रहता है। अत: वह मुक्ति में बाधक नहीं होता, क्योंकि तीर्थंकर नाम कर्म से युक्त जीव तीर्थंकर नाम कर्म गोत्र के उदय की अवस्था में नियम से ही मुक्ति को प्राप्त होता है। वस्तुत: व्यक्ति में जब तक योग अर्थात मन-वचन-कर्म की प्रवृत्तियाँ हैं तब तक कर्मास्रव अपरिहार्य है। फिर भी जैनाचार्यों ने इन योगों अथवा मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों को हेय नहीं बताया है और न उन्हें त्यागने का ही निर्देश दिया है। उनका निर्देश मात्र इतना ही है कि मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों को हेय नहीं बताया है और न उन्हें त्यागने का ही निर्देश दिया है। उनका निर्देश मात्र इतना ही है कि मन, वचन और काया की जो अशुभ या अप्रशस्त प्रवृत्तियां हैं, उन्हें रोका जाये, प्रशस्त प्रवृत्तियों के रोकने का कहीं भी कोई निर्देश नहीं है। तीर्थंकर अथवा केवली भी योग-निरोध उसी समय करता है जब आयुष्य कर्म मात्र पांच ह्रस्व-स्वरों के उच्चारण में लगने वाले समय के समतुल्य रह जाता है, अत: पुण्य कर्म को मुक्ति में बाधक या संसार परिभ्रमण का कारण नहीं माना जा सकता है। वस्तुतः संसार परिभ्रमण का कारण राग-द्वेष या कषाय के तत्त्व हैं क्योंकि राग-द्वेष या कषाय के अभाव में मात्र योग अर्थात् कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तियों के कारण जो कर्मास्रव होता है उससे ईर्यापथिक बन्ध होता है, साम्परायिक बन्ध नहीं होता। जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार बन्ध के चार प्रकारों में योग के निमित्त मात्र प्रकृति और प्रदेश का ही बन्ध होता है तथा राग-द्वेष एवं कषाय का अभाव होने के कारण उनका स्थिति बन्ध नहीं हो पाता अत: ईर्यापथिक आस्रव और ईर्यापथिक बन्ध में स्थिति का अभाव होता है और स्थिति के अभाव में वे कर्म दूसरे समय के पश्चात् ही निर्जरित हो जाते हैं, अत: पुण्यास्रव या पुण्य कर्म संसार परिभ्रमण का कारण नहीं है। सत्य तो यह है कि ईर्यापथिक आस्रव वस्तुत: बन्ध नहीं करता है। कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि पुण्य कर्म करने में प्रशस्त राग होता है और प्रशस्त राग भी संसार परिभ्रमण का कारण होता है। वस्तुत: यहां हम दो बातों को आपस में मिला देते हैं। कर्म की प्रशस्तता और कर्म की रागात्मकता ये दो अलग-अलग तथ्य हैं। जो प्रशस्त कर्म है वह रागात्मक भी हो, यह आवश्यक नहीं है। बन्धन में डालने वाला तत्त्व राग-द्वेष या कषाय है, जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार उसकी अनुपस्थिति में बन्धन नहीं होता है। वस्तुत: प्रशस्तकर्म का सम्पादन बन्धन का कारण नहीं है। सभी सद्प्रवृत्तियां या पुण्य कर्म रागात्मकता या आसक्ति से उत्पन्न नहीं होते हैं। प्रज्ञावान आत्माओं के कर्म कर्तव्य भाव से होते हैं और मात्र कर्तव्य बुद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525042
Book TitleSramana 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy