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________________ १०. था। आर्यरक्षित ने एक ओर वर्षाकाल में अतिरिक्त पात्र की अनुमति दी थी, वहीं दूसरी ओर अपने पिता को नग्नता ग्रहण करवाने हेतु कुशलतापूर्वक एक युक्ति भी रची थी। ३२ इसी काल की मथुरा की जिनमूर्तियों के पादपीठ पर जो मुनियों के अंकन हैं वे भी इसे पृष्ट करते हैं। क्योंकि उनमें नग्न मुनि के अंकन के साथ कम्बल, मुखवस्त्रिका एवं झोली सहित पात्र प्रदर्शित हैं। (इन अंकनों के चित्र जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय नामक ग्रन्थ के अन्त में प्रदर्शित हैं और ये मूर्तियाँ और पादपीठ लखनऊ संग्रहालय में उपलब्ध हैं)। इसके पश्चात् दिगम्बर परम्परा में हरिषेण के बृहत्कथाकोश में श्रुतकेवली भद्रबाहु के कथानक के साथ अर्ध स्फालक एवं श्वेताम्बर परम्परा की उत्पत्ति के कथानक उपलब्ध होते हैं। अन्तर यह है कि जहाँ देवसेन ने इस घटना को वीर निर्वाण सं० ६०६ में घटित बताया, वहाँ हरिषेण ने स्पष्टतः इसे श्रुतकेवली भद्रबाहु से जोड़कर ई०पू० तीसरी शती में बताया। मात्र यही नहीं, उन्होंने इसमें देवसेन द्वारा उल्लेखित शान्त्याचार्य के स्थान पर रामिल्ल, स्थूलवृद्ध (स्थूलाचार्य) और स्थूलिभद्र ऐसे तीन अन्य आचार्यों के नाम दिये हैं। ३३ इनमें स्थूलिभद्र के नाम की पुष्टि तो श्वेताम्बर स्रोतों से होती है किन्तु रामिल्ल और स्थूलवृद्ध कौन थे उसकी पुष्टि अन्य किसी भी स्रोत से नहीं होती है। इसमें स्थूलिभद्र को भी एक स्थान पर छोड़कर अन्यत्र भद्राचार्य कहा गया है। एक विशेष बात इस कथानक में यह है कि इसमें अर्धस्फालकों से श्वेताम्बरों की उत्पत्ति बताई है। इसे कम्बल तीर्थ भी कहा गया है और कथानक के अन्त में कम्बलतीर्थ से सावलीपत्तन में यापनीय संघ की उत्पत्ति दिखाई है। जबकि ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य यह है कि भद्रबाह के काल में जो मुनिसंघ दक्षिण में चला गया उसे वहाँ के जलवायु के कारण नग्न रहने में विशेष कठिनाई नहीं हुई किन्तु जो मुनिसंघ उत्तर में रहा उसे उत्तर-पश्चिम में जलवायु की प्रतिकूलता के कारण नग्न रहते हुए भी कम्बल एवं पात्रादि स्वीकार करना पड़े तथा इसी कारण जिनकल्प एवं स्थविरकल्प का विकास हुआ। इसे उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग भी कह सकते हैं। शिवभूति और आर्यकृष्ण के विवाद के पश्चात् ईसा की दूसरी शती में दो वर्ग बने। एक वर्ग ने पूर्व में गृहीत कम्बल और पात्र को यथावत रखा- इससे ही कालान्तर में वर्तमान श्वेताम्बर संघ का विकास हुआ और दूसरा वर्ग जिसने कम्बल और पात्र का त्याग करके उत्तर भारत में पुन: अचेलकत्व और पाणीपात्र की प्रतिष्ठा की थी और जिसे श्वेताम्बरों ने बोटिक कहा था। वही आगे चलकर दक्षिण में पहले मूलगण या मूलसंघ के नाम से और फिर यापनीय संघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ज्ञातव्य है कि इस सम्बन्ध में विस्तृत सप्रमाण चर्चा मैंने जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय नामक अपने ग्रन्थ में की है। इच्छुक व्यक्ति उसे वहाँ देख सकते हैं।३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525042
Book TitleSramana 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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