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________________ ११४ रचनाओं का आधार बनाया प्राय: उन सभी में रामकथा पर ग्रन्थ लिखे गये। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कनड़, मरुगुर्जर और हिन्दी-इन सभी भाषाओं में हमें जैन रामकथा से सम्बन्धित ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। रामकथा को लेकर सर्वप्रथम विमलसूरि ने प्राकृत में पउमचरियं की रचना की थी। उसी पउमचरियं को ही आधार बनाकर रविषेण ने संस्कृत भाषा में पद्मपुराण या पद्मचरित की रचना की। वस्तुत: रविषेण का पद्मपुराण विमलसूरि के पउमचरियं का संस्कृत रूपान्तरण ही कहा जा सकता है। पुन: स्वयंभू ने विमलसूरि के पउमचरियं और रविषेण के पद्मपुराण के आधार पर ही अपभ्रंश भाषा में अपने पउमचरिउ की रचना की। डॉ० किरण सिपानी ने अपनी कृति ‘पउमचरिउ का काव्यशास्त्रीय अध्ययन' में लिखा है कि जैनों के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में केवल विमलसूरि की (रामकथा प्रचलित है) परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में विमलसूरि एवं गुणभद्र दोनों की परम्पराओं का अनुसरण किया गया है। मेरी दृष्टि में उनके इस कथन में संशोधन की अपेक्षा है। श्वेताम्बर परम्परा में भी हमें रामकथा की दोनों धाराओं के संकेत मिलते हैं। उसमें संघदासगणि की वसुदेवहिण्डी में रामकथा की उस धारा का मूलस्त्रोत निहित है जिसे गुणभद्र ने अपने उत्तरपुराण में लिखा है। पुन: डॉ० सिपानी का यह कथन तो ठीक है कि दिगम्बर परम्परा में विमलसूरि और गुणभद्र दोनों ही कथाधाराएँ प्रचलित रही हैं। किन्तु इस सम्बन्ध में भी एक संशोधन अपेक्षित है।वस्तुत: निर्ग्रन्थ संघ की अचेल (दिगम्बर) परम्परा की दो धाराएँ रही हैं, एक उत्तरभारत की यापनीय धारा और दूसरी दक्षिण भारत की दिगम्बर धारा। वस्तुत: विमलसूरि की रामकथा का अनुसरण इसी यापनीय परम्परा ने किया है और यही कारण है कि रविषेण के पद्मपुराण और स्वयम्भू के पउमचरिउ में अनेक ऐसे संकेत उपलब्ध हैं, जो दिगम्बर परम्पराओं की मूलभूत मान्यता के विपरीत हैं। रविषेण और स्वयंभू ने विमलसरि की रामकथा का अनुसरण किया उसका मुख्य कारण यह है कि ये दोनों ही यापनीय परम्परा से सम्बन्धित हैं। स्वयम्भू के सम्प्रदाय के सम्बन्ध में पुष्पदन्त के महापुराण के टिप्पण में स्पष्ट निर्देश है कि वे यापनीय संघ के थे। इसकी विस्तृत चर्चा हम पूर्व में स्वयम्भू के सम्प्रदाय के सम्बन्ध में कर चुके हैं। स्वयम्भू का व्यक्तित्व पउमचरिउ के रचनाकार स्वयम्भू के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में पं० नाथूराम प्रेमी, डॉ० भयाणी, डॉ० कोछड़, डॉ० देवेन्द्र कुमार जैन, डॉ० नगेन्द्र एवं श्री सत्यदेवे चौधरी आदि अनेक विद्वानों ने चर्चा की है। डॉ० किरण सिपानी ने भी उस पर विस्तार से प्रकाश डाला है, मात्र यही नहीं उन्होंने कुछ स्थलों पर इन विद्वानों के विवेचन से अपना मतवैभिन्य भी प्रकट किया है। उदाहरण के रूप में वे पविरलदन्ते का अर्थ विरल दांत वाले न करके सघन दांत वाले करती हैं। पविरल में उन्होंने 'प' के स्थान पर 'अ' की योजना की है यद्यपि प्राचीन नागरी लिपि में 'प' और 'अ' के लिखने में थोड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525042
Book TitleSramana 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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