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________________ १०९ से ९६० के बीच कभी हुए हैं। स्वयंभू द्वारा रविषेण का उल्लेख तथा जिनसेन का अनुल्लेख यह भी सूचित करता है कि वे जिनसेन के कुछ पूर्व ही हुए होंगे। जिनसेन के हरिवंशपुराण का रचनाकाल ई० सन् ७८३ माना जाता है, अत: स्वयंभू का समय ई० सन् ६७७ से ई० सन् ७८३ के मध्य भी माना जा सकता है। यद्यपि यह एक अभावात्मक साक्ष्य है इसीलिए प्रो० भयाणी इसे मान्य नहीं करते हैं। सम्भवत: उनके इस कथन का आधार स्वयम्भू द्वारा राष्ट्रकूट राजा ध्रुव के सामन्त धनञ्जय का अपने आश्रयदाता के रूप में उल्लेख है। उन्होंने पउमचरिउ के विद्याधर काण्ड में स्वयं ही यह उल्लेख किया है उन्होंने ध्रुव के हेतु इसकी रचना की। इतिहासकारों ने राष्ट्रकूट राजा ध्रुव का काल ई० सन् ७८० से ७९४ माना है। स्वयम्भू इनके समकालीन रहे होंगे। स्वयम्भू द्वारा अपनी कृतियों में काण्डों की समाप्ति में वारों, नक्षत्रों आदि का उल्लेख तो किया गया है। किन्तु दुर्भाग्य से संवत् का उल्लेख कहीं नहीं है। इनके अनुसार पिल्लाई पञ्चाङ्ग के आधार पर प्रो० भयाणी ने यह माना कि युद्धकाण्ड ३१ मई, ७१७ को समाप्त हुआ होगा। किन्तु यह मात्र अनुमान ही है, क्योंकि यहाँ संवत् के स्पष्ट उल्लेख का अभाव है। फिर भी इतना तो सुनिश्चित है कि स्वयम्भू ई० सन् की ८ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध एवं नवीं शताब्दी के पूर्वार्ध अर्थात् ई० सन् ७५१ से ८५० के बीच कभी हुए हैं। स्वयंभू का सम्प्रदाय जहाँ तक स्वयम्भू की धर्म परम्परा का प्रश्न है यह स्पष्ट है कि वे जैन परम्परा में हुए हैं यद्यपि उनके पुत्रादि के नामों को देखकर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि उनके कुल का सम्बन्ध शैव या वैष्णव परम्परा से रहा होगा। किन्तु मेरी दृष्टि में यह कल्पना इसलिए समीचीन नहीं लगती है कि यदि वे शैव या वैष्णव परम्परा में हुए होते तो निश्चित ही वाल्मीकि की रामकथा का अनुसरण करते न कि विमलसूरि या रविषेण की रामकथा का। पुन: उनके द्वारा रिट्ठनेमिचरिउ आदि की रचना से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका सम्बन्ध जैन परम्परा से रहा होगा। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि पुष्पदन्त के महापुराण के संस्कृत टिप्पण में उन्हें स्पष्टतया आपलीयसंघीय (यापनीयसंघीय) कहा गया है। डॉ. किरण सीपानी ने उनके व्यक्तित्व आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करते हुए स्वयम्भू की धार्मिकसहिष्णुता एवं वैचारिक उदारता के आधार पर जो यह निष्कर्ष निकाला है कि वे कट्टरतावादी दिगम्बर सम्प्रदाय की अपेक्षा जैन धर्म के समन्वयवादी यापनीय सम्प्रदाय से सम्बन्धित रहे होंगे, उचित तो है। फिर भी मेरी दृष्टि में स्वयम्भू का मात्र सहिष्णु और उदारवादी होना ही उनके यापनीय होने का प्रमाण नहीं है, इसके अतिरिक्त भी ऐसे अनेक प्रमाण हैं जिसके आधार पर उन्हें यापनीय सम्प्रदाय का माना जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525042
Book TitleSramana 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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