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________________ मौर्य न होकर चन्द्रगुप्त नामक कोई अन्य राजा होगा। अभिलेखों एवं नैमित्तिक भद्रबाहु की कालिक समानता भी इसका प्रमाण है। ज्ञातव्य है कि रइधू ने अपने भद्रबाहुचरित्र में जिस चन्द्रगुप्त के भद्रबाहु से दीक्षित होने की बात कही है उसे चन्द्रगुप्त मौर्य न मानकर उसके पौत्र अशोक का पौत्र बताया है।२६ कुछ दिगम्बर विद्वानों ने इसकी पहचान सम्प्रति से की है, किन्तु न तो सम्प्रति का नाम चन्द्रगुप्त था- ऐसा कोई प्रमाण मिलता है और न श्रुतकेवली भद्रबाहु से अशोक के पौत्र चन्द्रगुप्त की समकालिकता ही सिद्ध होती है। अत: इस कथानक में स्वैर कवि-कल्पना ही अधिक परिलक्षित होती है। श्वेताम्बर प्रबन्धों में भी नैमित्तिक भद्रबाहु को प्रतिष्ठानपुर (पैठण-दक्षिण महाराष्ट्र) का निवासी माना गया है। अत: इनका सम्बन्ध दक्षिण में कर्नाटक की यात्रा से हो सकता है। पुनः श्रुतकेवली भद्रबाहु के सम्बन्ध में ये अभिलेख इसलिये भी प्रामाणिक नहीं लगते हैं कि ये उनके स्वर्गवास से एक हजार वर्ष बाद के हैं, अत: श्रुतकेवली भद्रबाहु के सम्बन्ध में इनकी प्रामाणिकता एक अनुश्रुति से अधिक नहीं मानी जा सकती है। हाँ, यदि ये नैमित्तिक भद्रबाहु से सम्बन्धित हैं तो इनकी प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता काफी बढ़ जाती है क्योंकि दोनों के काल में मात्र १५० वर्ष का अन्तर है। इस चर्चा से यह भी ज्ञात हो जाता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु और नैमित्तिक भद्रबाहु में लगभग ८०० वर्षों का लम्बा अन्तराल है। श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में श्रुतकेवली भद्रबाहु के कार्यों में उनके द्वारा महाप्राण नामक ध्यान की साधना करने एवं स्थूलिभद्र को १४ पूर्वो की वाचना देने की सम्पूर्ण घटना का विवरण आवश्यकनियुक्ति (लगभग ३री शती) एवं तित्थोगालीपइण्णा२७ (तीर्थोद्गालिक प्रकीर्णक-लगभग ५वीं शती) में मिलता है। संक्षेप में, द्वादशवर्षीय दुष्काल के बाद श्रमण संघ पाटलीपुत्र में एकत्रित हुआ। अंग साहित्य को व्यवस्थित करने हेतु आगमों की इस प्रथम वाचना का आयोजन हुआ- उसमें ग्यारह अंगों का पुन: संकलन किया गया किन्तु दृष्टिवाद एवं पूर्वो का संकलन नहीं हो सका, क्योंकि उस वाचना में इनको सम्पूर्ण रूप से जानने वाला कोई भी श्रमण उपस्थित नहीं था। उस समय दृष्टिवाद और १४ पूर्वो के सम्पूर्ण ज्ञाता मात्र भद्रबाहु ही थे जो नेपाल में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। श्रमण संघ के प्रतिनिधि के रूप में कुछ मुनि पाटलीपत्तन (पटना) से नेपाल की तराई में गये और उनसे वाचना देने की प्रार्थना की, भद्रबाहु ने अपनी ध्यान साधना में विघ्न रूप मानकर वाचना देने से इन्कार कर दिया। वाचना देने से इन्कार करने पर संघ द्वारा बहिष्कृत करने/सम्भोग विच्छेद रूप दण्ड का निर्देश देने के कारण वे पुन: वाचना देने में सहमत होते हैं। स्थूलिभद्र के साथ कुछ मुनि वाचना लेने जाते हैं, प्रारम्भ में वाचना मंथर गति से चलती है। स्थूलिभद्र को छोड़कर शेष मुनि संघ निराश होकर लौट आता है। स्थूलिभद्र की दस पूर्वो की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525042
Book TitleSramana 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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