SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपकृत किया है। द्ददा का शत-शत प्रणाम. मैथिली शरण गुप्त महाकवि की विशालता : भाई रावलमल जी जैन "मणि' ने एक पुस्तक भेंट की थी "जैन काव्य मंजूषा'। उसमें आचार्यश्री विजय लब्धिसूरि जी, ज्ञान विमल सूरिजी, समयसुंदर जी, पद्मविजय जी आदि अनेक महापुरुषों की रचनाएँ थीं, पढ़ते-पढ़ते एक रचना पर रुका, उसके शब्द थे तू चेत मुसाफिर चेत, क्यों मानत मेरा मेरा है। इस जग में नहिं कोई तेरा है, जो है सो सभी अनेरा है।। इन वाक्यों को कई बार पढ़ गया, लगा कि मेरा अंतर कुछ बोल रहा है। मैं खो गया चिन्तन की गहराइयों में। इन्हीं दिनों एक बार प्रसंगवश बम्बई जाने का अवसर आया। वहां एक जैनबंधु, जो मेरे परिचित थे, ने बातचीत के दौरान जैनाचार्य श्री लब्धिसूरि जी महाराज के प्रवचनों की जोरदार चर्चा की। मुझे उनकी पंक्तियां स्मरण हो आईं। मैंने उनसे मिलने का कार्यक्रम बनाया। मेरे मित्रों ने मझे आचार्यश्री से मिलवाया। अनेक साधु-संतों से घिरे एक वयोवृद्ध महात्मा को देखकर मैं किंचित् सकुचाया। थोड़ी देर बाद वे मेरी ओर देख मुस्कुराये फिर परिचय, कुशल-क्षेम के साथ विचारों का आदान प्रदान चल पड़ा। मैं यह देखकर दंग रह गया जब उन्होंने मेरी कृति “रश्मिरथी' पर जानदार टिप्पणी की। विचार क्रम में जब मैंने आचार्यश्री से तू चेत मुसाफिर चेत जरा.. पर चर्चा की तो दूसरी गोष्ठी के लिए सहर्ष आमंत्रित किया। दूसरे दिन रात्रि अपने साहित्यिक मित्रों के साथ ऋषिवर से मिलने आया। मैं महसूस कर रहा था कि देह की शिथिलता के बावजूद वे अंतर के आनंद से ओतप्रोत हैं। विचार गोष्ठी चल पड़ी सूक्ष्म दार्शनिक सूझबूझ के साथ और एक-एक शब्द छू जाते थे मेरे मन को। इस गोष्ठी में मैंने उन्हें आत्मसात् कर लिया था। सूरिदेव लब्धिविजय आचार्य की साधना को पढ़ा है, देखा है स्वयं उन्हें गाते हुए और उसमें गोते लगाते हुए। उन्होंने अपनी वैराग्यमयी ज्ञान साधना को सगुण भक्ति का रूप दिया, भक्ति को सरस काव्य का कलेवर प्रदान किया और काव्य को श्रुति मधुर संगीत के आवरण में सहृदय संवेदय बनाया। महाकवि की विशालता को शतश: अभिनंदन है। रामधारी सिंह "दिनकर" (प्रभावी आचार्य लब्बिसूरि श्रद्धांजलि अंक से साभार) छात्रों के प्रति अगाध वात्सल्यता : बात उन दिनों की है जब मैं ओसियां (राजस्थान) में पढ़ता था। पालीताणा स्थित ओसियां तीर्थ पेढ़ी शाखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525041
Book TitleSramana 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy