SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण / अप्रैल-जून/ १९९६ 4: ११३ , विवेचन करते हुए मुनिश्री ने आचार्य हरिभद्र के विचार से अपनी सहमति व्यक्त की है। "कोई श्वेताम्बर हो, या दिगम्बर जैन हो, या बौद्ध अथवा वैष्णव हो। ये कोई धर्म नहीं हैं, मुक्ति के मार्ग नहीं हैं। धर्म कोई दस हजार या दो हजार वर्ष के परम्परागत प्रचार का परिणाम नहीं है, वह तो एक अखण्ड शाश्वत और परिष्कृत विचार और हमारी विशुद्ध आन्तरिक चेतना है। मुक्ति उसे ही मिल सकती है जिसकी साधना समभाव से परिपूर्ण है । " तीसरे विभाग में संस्कृति और सभ्यता, व्यक्ति और समाज, मानव जीवन की सफलता, समाज-सुधार, नारी जीवन का अस्तित्व, वर्तमान युग की ज्वलन्त माँग समानता राष्ट्रीय जागरण, विश्वकल्याण का चिरन्तन पथ सेवा का पथ आदि निबन्ध हैं। उन निबन्धों के शीर्षकों से ही यह बोध हो जाता है कि उदारचेता उपाध्याय जी को सिर्फ अपने समाज ही नहीं बल्कि राष्ट्र और विश्व के कल्याण की चिन्ता थी। उन्होंने लिखा है— “सिर्फ जैन दर्शन ही नहीं बल्कि भारतवर्ष का प्रत्येक दर्शन, प्रत्येक सम्प्रदाय और प्रत्येक परम्परा इस विचार पर एकमत हैं कि मानव - जीवन पवित्रता के आधार पर चलता है। मानव का ज्ञान पुरुषार्थ और पवित्रता की जितनी उच्च भूमि पर पहुँचा हुआ होता है, उसका विकास उतना ही उत्कृष्ट होता है । " अहिंसा पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा है " अहिंसा की एक धारा रागात्मक भी है, जिसे हम समझने की भाषा में रागात्मक करुणा, स्नेह तथा प्रेम भी कह सकते हैं। उसी के आधार पर मनुष्य का पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन टिका है।" भगवान् और भक्त के सम्बन्ध में बाताते हुए उपाध्याय अमरमुनिजी ने कहा "भगवान् की विराट् चेतना का छोटा संस्करण ही भक्त है। बिन्दु और सिन्धु का अन्तर है। बिन्दु, बिन्दु हैं जरूर, पर उसमें सिन्धु समाया हुआ है। यदि बिन्दु नहीं है, तो फिर सिन्धु कहाँ से आएगा।" 1 पुस्तक में विचार की उत्कृष्टता तथा भाषा की सरलता है। विषय को प्रस्तुत करने की शैली रुचिवर्धक है। शास्त्री पं० विजयमुनि जी ने इसका सम्पादन किया है जिससे 'सोने में सुगन्ध' की बात चरितार्थ होती है । किन्तु खेद इस बात से है कि अब तक इस उच्चकोटि की रचना का दूसरा संस्करण ही निकल पाया है। कह नहीं सकता कि इसमें पाठकों की विषयग्राह्यता दोषी है अथवा व्यवस्थापकों की शिथिलता । पुस्तक की बाहरी रूपरेखा तथा मुद्रण आदि आकर्षक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only डॉ॰ बशिष्ठनारायण सिन्हा www.jainelibrary.org
SR No.525026
Book TitleSramana 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy