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________________ श्रमण प्राचीन जैन कथा साहित्य का उद्भव, विकास और वसुदेवहिंडी ____ डॉ. कमल जैन मानव समाज के विविध क्रियाकलापों तथा उनके प्रेरक मूल्यों एवं मान्यताओं की संज्ञा को संस्कृति कहते हैं। भारतीय संस्कृति विशाल एवं वैविध्यपूर्ण संस्कृति है जिसको जानने के लिये उसके साहित्य का अवलोकन अनिवार्य है। साहित्य अपने प्रतिपाद्य विषय, जनजीवन के कार्यकलापों और उसकी परिस्थितियों से ही ग्रहण करता है। वस्तुतः सामाजिक जीवन के परिवेश की हर वस्तु की छाप साहित्य पर होती है। विश्व साहित्य में कथा साहित्य का अत्यधिक महत्त्व है। कथा-कहानी, श्रुत और श्रुति से भी प्राचीन है। कथा-कहानियाँ अपनी स्थानीय परिस्थिति परिवेश, भौगोलिक तथा सामाजिक पृष्ठभूमि का जीवन्त दृश्य प्रस्तुत करती हैं। लोकदृष्टि से जैनसाहित्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण रोचक एवं जनप्रिय अंश कथा साहित्य है। अर्धमागधी आगम ग्रन्थों में दृष्टान्त, उपमा, रूपक, संवाद आदि में कथा-सूत्र मिलते हैं। जैनागमों के नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका ग्रन्थों में तो अपेक्षाकृत विकसित कथा साहित्य के दर्शन होते हैं। प्राचीन काल में संस्कृत, विद्वान पण्डितों की भाषा मानी गयी थी। वैदिक साहित्य इसी भाषा में रचा गया था। महावीर और बुद्ध ने जनसामान्य में बोली जाने वाली भाषा प्राकृत को अपनाया। प्राकृत लोकभाषा होने के कारण जनसामान्य से जुड़ी हुई थी जिसको बाल, वृद्ध, स्त्रियाँ और अनपढ़ सभी समझ सकते थे। जैनों का विशाल प्राकृत साहित्य एक ओर आगम साहित्य के रूप में प्रवाहित हुआ है तो दूसरी ओर चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग, द्रव्यानुयोग के रूप में हमारे समक्ष आया है। १. चरणाकरणानुयोग - श्रावक और श्रमणों का आचार सम्बन्धी साहित्य इसके अन्तर्गत आता है। २. धर्मकथानुयोग - धर्मसम्बन्धी कथाओं का साहित्य इसमें समाहित है। ३. गणितानुयोग - इसमें गणित के माध्यम से विषय को स्पष्ट किया गया है। ४. द्रव्यानुयोग - इसमें श्रुतज्ञान के प्रकाश से जीव, अजीव, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष आदि द्रव्यों को स्पष्ट किया गया है। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में लिखे गये धर्मकथानुयोग में विशुद्ध आचरण करने वाले महापुरुषों की जीवनियाँ थीं। धर्मकथानुयोग बारहवें अंग दृष्टिवाद का विषयवस्तु था। इसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525024
Book TitleSramana 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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