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________________ ३९ : श्रमण / अक्टूबर दिसम्बर / १९९५ अन्नपूर्णा, विज्ञान में मैडम क्यूरी, सती में सीता, शासन में लक्ष्मीबाई" धर्म में चंदनबाला, चेलना जैसी, धर्म-प्रचार में नेता और आत्मोत्थान में अजेय वीरांगना रही हैं। धर्म, शान्ति, क्षमा, सहनशीलता, त्याग, तपस्या, प्रेम, करुणा, सहानभूति, सेवा, श्रद्धा, समर्पण आदि गुणों से वह युक्त है। अतः नारी को देश, समाज, जाति, परिवार की नाड़ी कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। जिस प्रकार हाथ की नाड़ी की गति से वात, पित्त, कफ आदि की समता, विषमता और देह की स्वस्थता या अस्वस्थता का अनुमान होता है वैसे ही घर की नारी के सफल मातृत्व, चरित्र, बल, सेवा, शील आदि गुणों से परिवार समाज आदि की नैतिकता आँकी जाती है । २३ पर आज आधुनिक युग में विडम्बना ही विडम्बना है । पाश्चात्य देशों के बढ़ते हुए आकर्षण से भारतीय महिलाएँ पाश्चात्य सभ्यता की शिकार होती जा रही हैं। वे परिवार को श्रेष्ठ और पवित्र बनाने की अपेक्षा बाह्य काम-काजी होने की प्रेरणा ले रही हैं। उन्हें सीता के चरित्र से अधिक चित्रपट की तारिकाओं का रहन-सहन, वेश-भूषा, आचरण प्रलोभनीय लगने लगा है । २४ वर्तमानकालीन नारी अपनी शक्ति को खो बैठी है। भोग- लिप्सा में मगन हो गयी है । वस्त्राभूषण से शरीर को सुसज्जित करना विषय-वासनाओं में लिप्त रहना ही अपना कर्तव्य समझती है। आज के युग में लोग सातवीं मंजिल पर अधिक हैं और फुटपाथों पर कम । किन्तु जो संस्कारों की सातवीं मंजिल पर हैं वे बहुत थोड़े हैं, नगण्य हैं और असंस्कृत लोग अधिक संख्या में महलों की सातवीं मंजिल पर हैं। इस लोक के व्यवहारों के प्रति राई-रत्ती का हिसाब करने वाले परलोक के लिये कानी कौड़ी नहीं जुटाते, यह आश्चर्य का विषय है। क्या स्त्री, क्या पुरुष सभी भौतिक प्रपंच वृद्धि के उपाय जुटाने के लिये रात-दिन दौड़ रहे हैं। कोई मोटर गाड़ी पर कोई वायुयान में तो कोई फुटपाथ पर पैदल, किन्तु दौड़ सभी रहे हैं। किसी के पास बात करने का अवकाश नहीं । शरीर-यंत्र के पुर्जे रात-दिन घिस रहे हैं और लोग धीरे-धीरे रंग-मंच से उतर कर समाप्ति की ओर जा रहे हैं, किन्तु आत्म-अधिष्ठित पवित्र उद्देश्य के लिये समर्पित शरीर के पुर्जे उन हीन कोटि के उद्यमों में ही अविश्रान्त लगे रह कर क्यों समाप्त हो रहे हैं ? इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। अच्छे संस्कारों से वंचित होकर उनका जीवन अन्धे के समान बीत जाता है ।२५ मानव का विकास उन चारित्रिक गुणों से होता है, जिनकी शिक्षा व्यक्ति को माता के रूप में सर्वप्रथम नारी से मिलती है। गृहस्थ जीवन को संयमित करने में नारी की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। जैन गृहस्थ जब अपने जीवन में अहिंसा, सत्य, अस्तेय व ब्रह्मचर्य का मर्यादापूर्वक पालन करता है तब उसके मन में जीवन के प्रति सन्तोष जागृत होता है तब वह अपरिग्रही बनता है, अर्थात् चरित्र की सुरक्षा के लिये अपरिग्रही होना अनिवार्य है । २६ जैन शास्त्रों में परिग्रह को पाप बन्ध का मूल कारण कहा है। परिग्रहसूत्र में कहा गया है कि परिग्रह क्रोध, मान, माया, लोभ इन सब पापों का केन्द्र है । २७ परिग्रह से तीन बुराइयाँ उत्पन्न होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525024
Book TitleSramana 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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