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________________ ३२ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९५ शीलभद्रसूरि 'द्वितीय' ( वि० सं० १४४५-६६ ) प्रतिमालेख महेश्वरसूरि ( वि० सं०१४९४-१५२८१) | प्रतिमालेख सिंहदत्तसूरि ‘द्वितीय' (दुर्गासिंहवृत्तिअवचूर्णि J. की प्रशस्ति में ग्रंथकार के गुरु के | रूप में उल्लिखित ) जयकलश एवं जयकुशल (कातंत्रव्याकरणदौसिंहवत्तिअवचर्णि की प्रशस्ति में लिपिकार के रूप में उल्लिखित) उदयसागरसूरि ( वि०सं० १५५६-ई०स० । १५०० में कातंत्रव्याकरणदौर्गसिंह। वृत्तिअवचूर्णि के रचनाकार ) शीलभद्रसूरि तृतीय' (वि० सं० १५७७ ) प्रतिमालेख इस प्रकार साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर विक्रम संवत् की चौदहवीं शताब्दी के प्रथम चरण से लेकर वि० संवत् की सोलहवीं शताब्दी के अंतिम चरण (लगभग २५० वर्षों तक ) हारीजगच्छ की विद्यमानता सिद्ध होती है। शीलभद्रसूरि 'प्रथम' और शीलभद्रसूरि 'द्वितीय' तथा महेश्वरसूरि इस गच्छ के अन्य मुनिजनों की अपेक्षा विशेष प्रभावशाली प्रतीत होते हैं क्योंकि उनके द्वारा प्रतिष्ठापित कई जिनप्रतिमा मिली हैं। विक्रम संवत् की १६वीं शती के पश्चात् इस गच्छ से सम्बद्ध साक्ष्यों की दुर्लभता को देखते हुए यह माना जा सकता है कि इसके पश्चात् इस गच्छ का अस्तित्त्व समाप्त हो गया होगा। यह गच्छ कब, किस कारण एवं किस गच्छ या कुल से अस्तित्त्व में आया, इसके आदिम आचार्य कौन थे ? साक्ष्यों के अभाव में ये सभी प्रश्न अभी अनुत्तरित ही रह जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525024
Book TitleSramana 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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