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११ : अमण/अक्टूब-दिसम्बर/१९९५
वली में प्राप्त होता है। विद्वान लेखक ने वीर निर्वाण ५२७ ई० पू० तथा ४६७ ई० पू० दोनों तिथियों को मानकर उनमें सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया है परन्तु वह कहीं से भी सन्तोषजनक नहीं प्रतीत होता। डॉ० जैन स्वयं सन्तुष्ट नहीं हैं। पट्टावलियों के अनुसार आर्य मंगु का युग-प्रधान आचार्य-काल वीर निर्वाण संवत् ४५१ से ४७० तक माना गया है। वीर निर्वाण ई० पू० ४६७ मानने पर इनका काल ई० पू० १६ से ई० सन् ३ तक और वीर निर्वाण ई० पू० ५२७ मानने पर इनका काल ई० पू० ७६ से ई० पू० ५७ आता है। जबकि अभिलेखीय आधार पर इनका काल शक सं० ५२ (हुविष्क वर्ष ५२ ) अर्थात् ई० सन् १३० आता है ... ... ... अर्थात् इनके पट्टावली और अभिलेख के काल में वीर निर्वाण ई० पू० ५२७ मानने पर लगभग २०० वर्षों का अन्तर आता है और वीर निर्वाण ई० पू० ४६७ मानने पर भी लगभग १२७ वर्ष का अन्तर तो बना ही रहता है। अनेक पट्टावलियों में आर्य मंग का उल्लेख भी नहीं है। अत: उनके काल के सम्बन्ध में पट्टावलीगत अवधारणा प्रामाणिक नहीं है। इस प्रकार आर्य मंगु के अभिलेखीय साक्ष्य के आधार पर महावीर के निर्वाण-काल का निर्धारण सम्भव नहीं है क्योंकि इस आधार पर ई० पू० ५२७ की परम्परागत मान्यता एवं ई० पू० ४६७ की विद्वन्मान्य मान्यता दोनों ही सत्य सिद्ध नहीं होती है। डॉ० जैन ने आर्य मंगु के समान ही आर्य नन्दिल, आर्य नागहस्ति, आर्य कृष्ण एवं आर्य वृद्ध की तिथियों पर विचार किया है परन्तु कहीं पर भी अभिलेखीय एवं पट्टावली मान्य साक्ष्य में संगति नहीं बैठ पायी है। वास्तव में इन पट्टावलियों के आधार पर कोई निर्णय लिया भी नहीं जा सकता क्योंकि एक तो ये काफी बाद में संकलित की गईं और अधिकांशतः कल्पना-प्रसूत हैं।
_अब हम अन्त में श्वेताम्बर परम्परा के तित्योगाली तथा दिगम्बर परम्परा के तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रन्थों में वर्णित इस तथ्य की विवेचना करेंगे कि वीर निर्वाण के ६०५ वर्ष और ५ माह पश्चात् शक नरेश हुआ। और दोनों परम्पराओं के इस सामान्य निष्कर्ष की समालोचना कर किसी निर्णायक बिन्दु पर पहुँचने का प्रयास करेंगे। इन ग्रन्थों में इस तिथि के अतिरिक्त और भी तिथियाँ दी गई हैं किन्तु उनका कोई ऐतिहासिक महत्त्व नहीं है।
विद्वानों ने इस परम्परागत मान्यता के आधार पर महावीर का निर्वाण ६०५ – ७८ = ५२७ ई० पू० स्वीकार किया है। मैं विद्वानों का ध्यान एक ऐतिहासिक भूल की ओर आकृष्ट करना चाहता हूँ। इन दोनों ग्रन्थों में शक सम्वत् का नहीं अपितु शक नरेश के होने का उल्लेख है। तिलोयपण्णत्ति में 'सगणिओं अहवा'१४ तथा तित्योगाली में 'सगोराया' वर्णित है।" जबकि प्राय: सभी विद्वानों ने इसको शक संवत् ७८ मानकर अपनी मान्यता की पुष्टि की है।
ये दोनों ग्रन्थ किस शक नरेश का उल्लेख करते हैं - इस पर विचार करना होगा। छठी-सातवीं शताब्दी में निर्मित होने वाले भित्र परम्पराओं के इन दोनों ग्रन्थों के विद्वान लेखकों को यह तो स्पष्ट पता होगा कि जिस शक नरेश की वे बात कर रहे हैं वह कनिष्क तो नहीं ही होगा। कनिष्क जिसे शक संवत् का संस्थापक माना जाता है निश्चितरूपेण शक For Private & Personal Use Only
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