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________________ जैन धर्मग्रंथों में संसारी जीव के लक्षणों को संज्ञा, पर्याप्ति एवं प्राण के आधार पर समझाया गया है-प्रत्येक जीव में चार संज्ञायें होती हैं तथा वह अपनी वृद्धि पर्याप्ति के अनुसार करता है। जैन दृष्टिकोण वैज्ञानिक दृष्टिकोण आहार संज्ञा भय संज्ञा मैथुन संज्ञा परिग्रह संज्ञा चयापचय संवेदन, हलन चलन प्रजनन वृद्धि साथ ही अनुकूलन को भी जैन ग्रंथों के कालक्रम के अनुसार समझाया है। काल में परिवर्तन के साथ-साथ जीव की लंबाई (अवगाहना) पृष्ठास्थियों की संख्या तथा आयु में भी परिवर्तन हो सकता है। पंचम काल के प्रारंभ में मनुष्य की औसत अवगाहना 7 हाथ तथा हड्डियों की संख्या 24 थी, जो कि इस काल के अंत में घटकर क्रमशः 3 हाथ तथा 12 रह जायेगी। जैन ग्रंथों में वर्णित जीव के योनि या उत्पत्ति स्थान, 6 काल की व्यवस्था भी वैज्ञानिक मान्यताओं को पुष्ट करती है। डार्विन के प्राकृतिक वरणवाद के सिद्धांत के अनुसार वे ही जीव जीवित रह सके जिनमें नए परिवेश एवं वातावरण में जीने की योग्यता थी। जैन ग्रंथों के अनुसार उतनी ही प्रजातियां पैदा हो सकती हैं जितनी योनियां तथा कुल कोटि हैं और काल उनके अनुकूल है। योनियों की संख्या 84 लाख तथा उन योनियों से 199 लाख क्रोड़ प्रजाति पैदा हो सकती है। जीव विद्या (जेनेटिक्स) के अनुसार जीवन से सम्बन्धित सार सूचनाएं जीन्स के रूप में डी.एन.ए. पर अंकित होती हैं। जैन ग्रंथों के अनुसार कोशिकाओं में जो वृद्धि, विभाजन तथा भिन्नता आदि क्रियाएं होती हैं वह सब इन पर्याप्तियों का ही हिस्सा है। पर्याप्तियों का नियंत्रण कर्मों द्वारा होता है तथा यह कर्म पुद्गल के ही विशेष रूप हैं। जैन ग्रंथों के अनुसार जीव त्रस व स्थावर होते हैं। त्रस जीवों में दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और पंचेन्द्रिय आते हैं तथा स्थावर जीव नामकरण के उदय से एकेन्द्रिय में उत्पन्न होते हैं। जैन ग्रंथों के अनुसार मनुष्य का शरीर भी निगोदियायुक्त होता है। विज्ञान के अनुसार मनुष्य के शरीर में सामान्यतः 100 खरब कोशिकाएं होती हैं। जो पुष्टि करती है कि कोशिकाओं को निगोदिया माना जा सकता है। जैन ग्रंथों में निगोद के सम्बन्ध में जो पुलवियों का वर्णन किया गया है वह भी मनुष्य के शरीर रचना सम्बन्धी वैज्ञानिक मान्यता से अद्भुत साम्य रखता है। Jain Education International कुछ जीवों के संमूर्च्छन जन्म सम्बन्धी जैनों की अवधारणा को वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। जैन ग्रंथों में प्रतिपादित कर्मसिद्धांत के लिए न तो जेनेटिकल इंजीनियरिंग और न ही तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2008 For Private & Personal Use Only 77 www.jainelibrary.org
SR No.524637
Book TitleTulsi Prajna 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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