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ओतप्रोत चेतना को ही मुख्य मानता है। जिस चेतना को वह आत्मा अथवा ब्रह्म नाम देता है। ये दोनों धारायें साथ-साथ बहती रही हैं। अभ्युदय के इच्छुक देवोपासना करते रहे और मुमुक्षु ब्रह्म का ध्यान करते रहे। समन्वय की दृष्टि से देवोपासना पूर्व-मीमांसा का विषय बन गया और ब्रह्म का चिन्तन उत्तर-मीमांसा अथवा वेदान्त का विषय बन गया। देवोपासना और ब्रह्म के चिन्तन से दो निष्कर्ष निकले, प्रथम तो यह कि सब प्राणी देवों अर्थात् प्राणों का समुच्चय हैं और दूसरा यह कि सभी प्राणी ब्रह्म रूप है।
उपयुत दो धारणाओं का परस्पर अन्त में समन्वय हुआ तो यह फलित हुआ कि सभी प्राणियों में कोई न कोई प्राण रहते हैं और प्राणों के आधार पर प्राणियों का दो प्रकार से वर्गीकरण हुआ। इन प्राणों में भी तीन प्राण मुख्य माने गये - अग्नि, वायु और आदित्य। ब्रह्म तो सबमें समान रूप से है, अतः ब्रह्म के आधार पर सभी प्राणी समान हैं किन्तु अग्नि, वायु, आदित्य नामक देवो अथवा प्राणों के आधार पर प्राणियों के विकास में तारतम्य है।
अग्नि-प्राण प्राणियों का शरीर बनाता है, वायु-प्राण उनमें क्रिया का संचार करता है और आदित्य-प्राण में ज्ञान जगाता है। इस आधार पर जीवों का वर्गीकरण तीन भागों में हो जाता हैं -
1.अग्नि-प्राण-प्रधान वे जीव हैं जिनका शरीर तो हैं किन्तु जिनमें कोई क्रिया दृष्टि गोचर नहीं होती। सारी धातुएँ; (Mineras) और पाषाण उसी कोटि में आते हैं। इन्हें असंज्ञ कहा जाता है।
2.जिन प्राणियों में अग्नि-प्राण के साथ साथ वायु-प्राण भी विकसित रूप में हैं, वे शरीरधारी तो हैं ही, उनमें क्रिया भी है। वनस्पति इसी कोटि में आती हैं। इस क्रियाशीलता के कारण ही आचारांग में वनस्पति की सजीव होने की युक्तियाँ दी जा सकीं किन्तु क्रिया के अभाव में पाषाणादि के सजीव होने की कोई युक्ति नहीं दी जा सकी। वनस्पति मनुस्मृति में अन्तःसंज्ञ कहीं गयी है और यह भी कहा गया है कि इन्हें सुख-दुखः का अनुभव होता है किन्तु उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकते।
3.जिन प्राणियों में अग्नि-प्राण, वायु-प्राण के साथ साथ आदित्य-प्राण भी विकसित हो गया है, उनमें शरीर तथा क्रिया के साथ साथ ज्ञान भी अभिव्यक्त रूप में मिलता है। इस कोटि में सभी त्रस प्राणी आते हैं और इन्हें ससंज्ञ कहा जाता है।
यह प्रथम विभाजन प्राणों की अपेक्षा है किन्तु प्राणियों के शरीर में भी प्राणों की अपेक्षा तारतम्य दृष्टि गोचर होती है। जिस प्राणी में आदित्य प्राण का अधिकाधिक विकास होता है उसका शरीर उतना ही पृथ्वी से ऊपर उठ जाता है। पार्थिव प्राण तमोगुण को बढ़ाने वाले हैं, आदित्य-प्राण ज्ञान को बढ़ाते हैं। इस दृष्टि से ज्ञान का तारतम्य प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। असंज्ञ पाषाण आदि में तमोगुण इतना प्रगाढ़ है कि उनका पूरा शरीर ही पृथ्वी से चिपका रहता है। जैसे ही रजोगुण का कुछ अंश व्यक्त होता है, वनस्पति पृथ्वी को अंशत भी छोड़ नही सकतीं। अतः वह चल नही सकती। यहाँ तक स्थावर प्राणियों की सृष्टि है।
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2008
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