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________________ परिग्रह का प्रारम्भ बिन्दु है शरीर का मोह। मनुष्य जीना चाहता है और शरीर को सुरक्षित रखना चाहता है, इसीलिए स्थानांगसूत्र में परिग्रह के तीन प्रकार बतलाये गये, इनमें पहला प्रकार है शरीर। यह परिग्रह का मूल आधार है। दूसरा कारण और दूसरा प्रकार है कर्म संस्कार। जो संस्कार हमने अर्जित कर रखे हैं, वह परिग्रह है और वे संस्कार ही मनुष्य को परिग्रही बनने के लिए प्रेरित करते हैं, हिंसा के लिए भी प्रेरित करते हैं। संस्कार स्वयं में भी परिग्रह हैं। हमारे पास. संस्कारों का एक बहुत बड़ा संग्रह है। परिग्रह का तीसरा प्रकार है पदार्थ।। ___अपरिग्रह पर विचार किया गया तो पहला सिद्धान्त स्थापित हुआ-ममत्व चेतना का परिष्कार। हमारी जो ममत्व की चेतना है- उसका परिष्कार होना चाहिए। ममत्व की चेतना का परिष्कार होगा तो फिर ममत्व का परिष्कार होगा। आचारांग सूत्र का बहुत स्पष्ट निर्देश है-ममत्व का त्याग वह कर सकता है जो ममत्व की बुद्धि का परित्याग करता है। ममत्व की चेतना का परिष्कार करता है वह ममत्व का परित्याग कर सकता है। चेतना का रूपान्तरण नहीं होता तब तक परिग्रह की ओर होने वाली मूर्छा कम नहीं हो सकती। मनोविज्ञान का एक बहुत सुन्दर सूत्र मिलता है, जो ममत्व चेतना का समर्थन करने वाला है। मानसशास्त्र में अनेक मनोवृत्तियां मानी गईं, आखिर मानस शास्त्री एक निष्कर्ष पर पहुंचे-एक मनोवृत्ति में सबका समावेश हो सकता है वह है अधिकार की भावना, अधिकार की मनोवृत्ति। हर प्राणी में अधिकार की मनोवृत्ति है। हर व्यक्ति दूसरे पर अधिकार जमाना चाहता है, पदार्थ पर भी अपना अधिकार स्थापित करना चाहता है। अहिंसा की व्याख्या में आचारांग सूत्र का जो निर्देश मिलता है वह इसी ओर इंगित करता है कि किसी पर हुकूमत मत करो, अपना अधिकार मत जमाओ। यह अधिकार की भावना परिग्रह है। यह हिंसा को जन्म देती है। ____संग्रह की मनोवृत्ति को ममत्व चेतना का फलित मानना चाहिए। ममत्व चेतना है, इसीलिए अधिकार की मनोवृत्ति है, संग्रह की मनोवृत्ति है। जहां अपरिग्रह का विमर्श हो, वहां ममत्व की चेतना का परिष्कार पहला आधार बनेगा। इसके लिए ही भेद विज्ञान का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया। भेद विज्ञान शरीर और आत्मा में भेद की अनुभूति कराता है। भेद विज्ञान सिद्ध होता है तो पदार्थ के प्रति मूर्छा अपने आप हट जाती है। जब तक यह अभेद की बुद्धि है तब तक मूर्छा बढ़ती चली जायेगी। पदार्थ के द्वारा ही सब कुछ मेरा हो रहा है, यह एक समारोप हो जाता है। अज्ञानी आदमी मानता है-पुद्गल से ही, पदार्थ से ही मेरा सारा काम चलता है, मेरी सारी तृप्तियां हो रही हैं। जब ज्ञान का उदय होता है, ज्ञान योग में समावेश होता है तब चिन्तन बदलता है कि यह पर तृप्ति है। पदार्थ से होने वाली तृप्ति, पुद्गल से होने वाली तृप्ति यह एक समारोप है, आरोपण किया गया है। वास्तव में यह मेरा स्वरूप नहीं है, तुम्हारी तृप्ति भी नहीं होती, अतृप्ति और बढ़ती चली जाती है। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2008 - 3 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524637
Book TitleTulsi Prajna 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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